SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ २९३ रही हैं, मुनि की नहीं । उन परम्परा- - पूजित प्रतिमाओं की पूज्यता में शंका उठाना भक्ति का कार्य नहीं, अरहंत का अवर्णवाद होगा । परवर्ती काल में भी उपसर्ग की घटना का जो वर्णन पुराणकारों ने किया है वह उत्तर पुराण की परम्परा का सर्वथा अनुगामी रहा है। आचार्य दामनन्दी ने अपने “पुराण - सार-संग्रह " में इस प्रसंग को इस प्रकार अंकित किया - उपसर्गं जिनेन्द्रस्य स्वसिंहासन कम्पनात, नागेन्द्रा भूतलाच्छीघ्रं नागिन्यासार्धमुदगतः कृत्वा फटा सहस्राणि ज्वलन्मणि-विभूषित, पार्श्वनाथं सुनागेन्द्रो भक्त्याप्रच्छाय संस्थितः । नागिनी च वृहच्छत्रं वैडूर्य मणि-दण्डकम्. . हिम - मुक्ता कलापाद्यं दीप्त बज्रमयंमुदा । सम्यग्धृत्वास्थिता भक्त्या तत्क्षणे च जिनेश्वर, पुराण-सार-संग्रह, सर्ग ३, श्लोक १८-२२ " एक भयंकर पर्वत को उठाकर भगवान् के सिर पर पटकने के संकल्प से ज़्यों ही वह असुर आकाश में गया, त्यों ही अपने आसन के कम्पन से, भगवान् के ऊपर बड़ा भारी उपसर्ग जानकर, धरणेन्द्र देवी पद्मावती के साथ, 'शीघ्र ही पाताल से निकल कर आया । चमकते हुए मंणियों से सुशोभित वह धरणेन्द्र अपनी हजार फणाओं से भगवान् को ढक कर खड़ा हो गया। उसकी देवी पद्मावती, एक ऐसे छत्र को भगवान् के ऊपर धारण करके खड़ी हो गई जिसका दण्ड वैडूर्य मणि का था, किनारों परशुक्ल मोतियों की लड़ियां लगी थीं, और जो बज्र के समान चमक रहा 2TTI" ।" कविवर भूधरदासजी ने भी इस घटना को ठीक इसी प्रकार अपने “पार्श्व-पुराण" में छन्द-बद्ध किया
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy