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________________ १८२ तीर्थकर पार्श्वनाथ _ "काले पाठः स्तवो ध्यानं शास्त्रे चिन्ता गुरौ नति: यत्रोपदेशना लोके शास्त्रज्ञानोपयोगता।।" अर्थात् योग्य काल में पाठ स्तवन और ध्यान करना, शास्त्रों का मनन करना, गुरू को नमन करना और उपदेश देना इन्हें लोक में . अभीक्ष्णज्ञानोपयोग कहते हैं। ये सभी स्तुति या स्तोत्र के पारलौकिक फल हैं। स्तोत्र या स्तुति का इहलौकिक फल भी चिन्तय है। अधिकांश व्यक्ति किसी इहलौकिक फल की इच्छा करते हुए भी स्तोत्र पाठ करते देखे जाते हैं। शास्त्रों में स्तोत्र पाठ से इहलौकिक फल प्राप्ति का भी कथाओं के माध्यम से उल्लेख है। 'उवसग्गहर स्तोत्र' जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, उपसर्ग निवारणार्थ रचा गया है। विषापहार' विषहरण के लिए, एकीभाव' कुष्टनिवारणार्थ, 'भक्तामर' बन्दीग्रह से मुक्ति के लिए, 'कल्याण मंदिर' कल्याण प्राप्ति के लिए रचा गया है। इस तरह हर स्तोत्र की अलौकिक महिमा का वर्णन तत्-तत् स्थानो पर किया गया है। एक-एक पद्य की महिमा का भी वर्णन उपलब्ध होता है। भक्तामर के ४८ काव्यों में प्रत्येक के अलग-अलग प्रयोजन बताये गये हैं। जैन तीर्थंकर या भगवान तो वीतरागी होते हैं वे प्रशंसा करने पर कुछ देते नहीं और आलोचना करने पर कुछ लेते नहीं हैं। वे किसी के पापों का नाश नहीं करते और न किसी को मुक्ति वधू का वरण कराते हैं। फिर उनसे ऐसी प्रार्थनायें क्यों की जाती हैं, उनमें व्यर्थ ही कर्तृत्व का आरोप क्यों किया जाता है। इसका उत्तर कल्याण मंदिर स्तोत्रकार ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में दिया है। यथा - 'हृद्वार्तिनि त्वार्य विभो' शिथलीभवन्ति जन्तोः क्षणेन निविडा आर्य कर्मबन्धाः। .. सघ: भुजगंममया इव मध्यभाग मम्यागते वनशिखाण्डेनि चन्दनस्य ।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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