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जैन स्तोत्र और भगवान पार्श्वनाथ
- डॉ. कपूरचंद जैन*
भारतीय धर्मों/दर्शनों में जैन-धर्म/दर्शन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही एक दर्शन है जो पूर्णत: व्यक्ति स्वातन्त्र्य की घोषणा करता है। जैन धर्म/ दर्शन की प्राचीन भाषा प्राकृत रही है। प्राकृत भाषा में स्तोत्र के लिए 'थुई' और 'थुदि' इन दो शब्दों का प्रयोग मिलता है। संस्कृत में स्तोत्र के लिए स्तुति', 'स्तव', स्तवन', 'स्तोत्र' आदि शब्द व्यवहृत है। प्रारम्भ में स्तति' और 'स्तव' में अन्तर था। यथा “एक: श्लोक: दौ श्लोकौ, त्रिश्लोका: वा स्तुतिर्भवति परतश्चतुः श्लोकादि: स्तव: । अन्येषामाचार्याणां मतेन एक श्लोकादि: सप्तश्लोकपर्यन्ता स्तुति: तत: परमष्टश्लोकादिका: स्तवा:
इसी प्रकार 'स्तव' तथा स्तोत्र' में भेद बताते हुए कहा गया है कि 'स्तव' गम्भीर अर्थ वाला और संस्कृत भाषा में निबद्ध होता है तथा 'स्तोत्र' विविध छन्दों वाला और प्राकृत भाषा में निबद्ध होता है। आजकल यह अन्तर समाप्त प्राय: है और 'स्तुति', 'स्तव', 'स्तवन', 'स्तोत्र' आदि शब्द समानार्थी हो गये हैं।
स्तोत्र पाठ से चित्त में निर्मलता आती है, कर्म बन्ध सकता है और पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा होती है। उत्तराध्ययन सूत्र में एक रोचक संवाद मिलता है -
_ 'थवथुइमंगलेण भन्ते! जीवे किं जणयइ थवथुइमंगलेण नाणदंसण चरित्र बोहिलाभ जणयइ। नाण दसणचत्रि बोहिलाभ - सम्पन्ने य णं जीवे अन्तकिरियं कप्पाविमाणेव वत्तिगं आराहणं आराहेइ'३ .
* अध्यक्ष संस्कृत विभाग, श्री कुन्दकुन्द जैन पी.जी. कालेज, खतौली