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________________ १४२ तीर्थंकर पार्श्वनाथ पता चलता है। महाराष्ट्र व कर्नाटक में प्राचीन काल से पार्श्वनाथ की मूर्तियां गुफाओं में और मंदिरों में पायी जाती हैं। मध्ययुगीन स्थित्यंतर में साहित्य नष्ट होने की संभावना नकारी नहीं जा सकती है। इसीलिए पार्श्वनाथ पर अत्याधिक अधूरा - आधा साहित्य मिलता है। महाराष्ट्र में पार्श्वनाथ जी की लोकप्रियता का एक और कारण भी कहा जा सकता है वह है स्त्री देवताओं की आदिशक्ति के रूप में की जानेवाली पूजा। भवानी, अंबाबाई, यल्लम्मा आदि देबियों का समाज पर पड़े प्रभाव से जैन महिलाओं में देवी के रूप में पद्मावती की घर घर की जानेवाली अर्चना, पद्मावती की आरती और स्तुतिस्तोत्र सारें जैन उपविभागों में लोकप्रिय है । मध्ययुगीन जैन आचार्यों ने धर्मप्रसार व लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए “कैको” भारूड़ और डफ काव्यों की रचना की होगी । आज तक उत्तर के जैनों के मूल स्थानों पर अधिक संशोधन व साहित्य मिला है। दाक्षिणात्य भाषाओं में यह प्रमाण प्रादेशिक भाषा तक ही सीमित रहा है। महाराष्ट्र में जैन संस्कृति का प्रगल्भ स्वरूप प्रकट करने वाली वास्तुकला, शिल्पकला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि कलाओं का संशोधनात्मक व शास्त्रीय स्तर पर अध्ययन होना आवश्यक है । ऐसा लगता है कि तब तक शायद प्रादेशिक जैन साहित्य को प्रतिष्ठा नहीं मिल पायेगी । अंबाबाई, भवानी, यल्लम्मा, रेणुका देवियों के मंदिर शायद पहले पद्मावती देवी के ही होंगे ऐसा विश्वास जैनधर्मी रखते हैं । कराड (सातारा जिला ) में उत्खनन में पायी गयी मूर्ति पर पद्मावती के चिन्ह दिखाई देते हैं । इस पर संशोधन द्वारा अधिक प्रकाश डालने की आवश्यकता है । संदर्भ १. दांडेकर गो.नि., “जैन तत्वज्ञान व ज्ञानेश्वर", भा. प. मंगुडकर संपादित महाराष्ट्र व जैन संस्कृति में प्रकाशित, मई १९८८, पृष्ठ ९.
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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