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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
अत: इनकी अधिकांश प्रतिमाएं 'श्याम वर्ण एवं सिर के ऊपर छत्रकार नागफण से युक्त पायी जाती है। यह नागफण भगवान् पार्श्वनाथ की तपस्या के समय हुए उपसर्ग की घटना से संबंधित है। उपसर्ग विजय के पश्चात् पार्श्वनाथ की दिव्य आत्मा को कैवल्य प्राप्त हुआ। उनका ज्ञान निर्मल हो गया। स्वयं को समझकर उन्होंने तत्पश्चात् बोलना आरंभ किया
और विश्व कल्याण के इस महान महात्मा को भी दुनिया ने पहचाना और समस्त दुनिया इस महात्मा को सुनने के लिये इनके पीछे हो गई। महात्मा वही होता है, जिसके हृदय में सभी प्राणियों के लिये समान व्यवहार हो। देवता, इन्द्रादिक भी प्रभु की सभा में आये। इन्द्र ने बैठने की व्यवस्था की और उन सब को बारह स्थानों में विभक्त कर दिया। भगवान् सबसे बीच में थे, जिससे चारों तरफ से दिखलाई देते थे। उनका मौन खुला, सर्वत्र दिशाओं में उन्होंने जैन धर्म का प्रचार किया।
भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता में अब किसी भी विद्वान को कोई संदेह नहीं है, यद्यपि कुछ यह आग्रह बना हुआ है कि पार्श्व ही जैन धर्म के प्रवर्तक थे अथवा कम से कम यह कि उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर ऐतिहासिकता की परिधि से बाहर थे।१०
भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म उरग वंश में हुआ था, जो नाग जाति की ही एक शाखा थी। अत: उस काल में पुन: जागृत नाग लोगों में उनके धर्म का प्रचार अत्यधिक रहा। उनके समय में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में अनेक प्रबल नाग सत्ताऐं राजतन्त्रों अथवा गणतन्त्रों के रूप में उदित हो चुकी थीं और इन लोगों के इष्ट देवता पार्श्वनाथ ही प्रतीत होते हैं। इनके अतिरिक्त मध्य एवं पूर्वी देशों के अधिकांश व्रात्य क्षत्रिय भी इन्हीं के उपासक थे। लिच्छवि आदि आठ कुलों में विभाजित वैशाखी और विदेह के शक्तिशाली वज्जिगण में तो पार्श्व का धर्म ही लोक धर्म था। ____ करकंडु चरित के नायक करकंड भी ऐतिहासिक व्यक्ति थे, जो पार्श्वनाथ के उपासक एवं भक्त थे। उस युग के आदर्श नरेश थे। इन्होंने