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________________ (५१६) . उत्कृष्ट आयुष्य वाले देव नौ महीने के अंतर में श्वासोश्वास लेते हैं और जघन्य आयुष्य वाले देव साढ़े आठ महीने के अन्तर में श्वासोश्वास लेते हैं, अन्य देवों का उसके अनुसार समझ लेना । (३८६) . भोगो गत्यागती संख्योत्पादच्यवनगोचरा । अवधिज्ञान विषयः, सर्वमत्रापि शुक्रवत् ॥३८७॥ विषय का भोग अर्थात मन से ही विषय का सेवन, गति अगति, उत्पत्ति और च्यवन की संख्या, अवधिज्ञान का विषय आदि शुक्र देवलोक के समान समझ लें । (३८७) अत्रोत्पादच्यवनयोर्गरीयान् विरहो भवेत् ।. शतं दिनानामल्पीयान्, स पुनः समयो मतः ॥३८८॥ यहाँ उत्पत्ति और च्यवनका विरह उत्कृष्ट सौ दिन का होता है और जघन्य रूप में एक समय का होता है । (३८८) । चतुर्थ प्रतरेऽत्रापि, सहस्रारावतंसकः । अङ्कावतंसकादीनां, चतुर्णा मध्यतः स्थितिः ॥३८६॥ यहाँ भी चौथे प्रतर में अंकावतंसकादि चार विमान के मध्य में सहस्रा रावतंक नाम का विमान होता है । (३८६) सहस्रारस्तत्र देवराजो राजेव राजते । प्राग्वत्कृतजिनाद्य!, महासिंहासने स्थितः ॥३६०॥ वहां सहस्रा नाम का इन्द्र राजा के समान शोभायमान होता है और पूर्व के इन्द्रों के समान श्री अरिहंत परमात्मा की पूजादि करके यहां सिंहासन ऊपर बैठता है । (३६०) पञ्चभिर्निर्जरशतैः सेव्योऽभ्यन्तरपर्षदि । सप्तपल्यधिकापार्द्धाष्टादशाभ्योध्रिजीविभिः ॥३६१॥. उस इन्द्र की अभ्यन्तर पर्षदा के पाँच सौ देवता सेवा करते हैं, उनका आयुष्य साढ़े सतरह सागरोपम और सात पल्योपम का होता है । (३६१)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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