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करने के बाद विजय अन्तर नदी वक्षस्कार पर्वत और अन्तिम वन की चौड़ाई उसउस स्थान से जान सकते हैं । वह प्राज्ञ पुरुषों ने स्वयं विचार कर लेना । (१५३-१५४)
अथ देवकुरुणां यः प्राच्यां सौमनसो गिरिः । तथोत्तरकुरुणां यः पूर्वस्यां माल्यवानियौ ॥१५५॥ त्रिचत्वारिंशत्सहस्रान्, लक्षाविंशतिमायतौ । . . . एकोनविंशाद्विशती योजनानामुभावपि ॥१५६॥ देवोत्तर कुरुभ्यश्च, प्रतीच्यां यौ व्यवस्थितौ । विद्युत्प्रभगिरिर्गन्धमादनश्चायतावुभौ ॥१५७॥ योजनानां षोडशैव, लक्षाः षड् विंशतिं तथा । . . सहस्राणि शतमेकं , संपूर्णं षोडशोत्तरम् ॥१५८॥ . इदं मानं पुष्करार्द्ध प्राचीनाधव्यपेक्षया । पश्चिमाःविपिर्यासो, धातकी खंड वत् स तु ॥१५६॥
अब देव कुरु की पूर्व दिशा में सौमनस नाम का गजदंत पर्वत आता है और उत्तर कुरु की पूर्व दिशा में माल्यवान नामक गजदंत पर्वत है । इन दोनों पर्वतों की लम्बाई बीस लाख तैंतालीस हजार दो सौ उन्नीस (२०, ४३, २१६) योजन की है, तथा देव कुरु और उत्तर कुरु की पश्चिम दिशा में क्रमशः स्थित जो विद्युत्प्रभ
और गन्धमादन नामक दो गजदंत पर्वत है वे लम्बाई में सोलह लाख छब्बीस हजार एक सौ सोलह (१६२६११६) योजन के है । इस तरह पुष्करार्ध दीप के पूर्वाध में रहे पर्वतों का है । पुष्कराई द्वीप के पश्चिमार्ध में इससे विपरीत है और वह विपरीत धातकी खंड के समान जानना । अर्थात पश्चिम के देवकुरु और उत्तरकुरु की पूर्व दिशा में रहे सौमनस और माल्यवान नामक दो गजदंत पर्वत की लम्बाई सोलह लाख छब्बीस हजार एक सौ सोलह योजन हे और पश्चिम दिशा में रहे विद्युत्प्रभ और गन्धमादन नामक पर्वत की लम्बाई बीस लाख तैंतालीस हजार दो सौ उन्नीस योजन की है । (१५५-१५६)
अष्टाप्येते गजदन्ता, नीलवन्निषधान्ति के । . सहस्रद्वय विस्तीर्णाः सूक्ष्माश्चमन्दरान्तिके ॥१६०॥,