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________________ (५६) तो वह सिद्धि पद प्राप्त करता है, इससे अधिक वाला सिद्ध नहीं होता। जघन्य नौ वर्ष के आयुष्य वाला सिद्ध होता है, इससे कम आयुष्य वाला नहीं होता । (१३२) द्वात्रिंशदंता एकाधाश्चेत् सिद्धयन्ति निरन्तरम् । तदाष्ट समयान् यावनवमे त्वन्तरं ध्रुवम ॥१३३॥ अष्टचत्वारिंशदन्तास्त्रयस्त्रिंशन्मुखा यदि । सिद्धयन्ति समयान् सप्त ध्रुवमन्तरमष्टमे ॥१३४॥ एकोन पंचाशदाद्याः षष्टयन्ता यदि देहिनः । सिद्धयन्ति समयान् षट् वै सप्तमे त्वन्तरं भवेत् ।।१३५।। एक षष्टि प्रभृतयो यावद् द्वासप्तति प्रभाः । सिद्धायन्ति समयान् पंच षष्ठे त्ववश्यमन्तरम् ॥१३६॥ त्रिसप्ततिप्रभृतयश्चतुर, शीतिसीभकाः । चतुरः समयान् यावत् सिद्धयन्त्यग्रेतनेऽन्तरम् ॥१३७॥ पंचाशीत्याद्याः क्षणां स्त्रीन् यान्त्याषण्णवर्ति शिवम् । क्षणौ सप्तनवत्याद्या द्वौ च द्वयाद्यशतावधि ॥१३८॥ त्रयाधिक शताद्याश्चेत यावदष्टोत्तरं शतम् । सिद्धयन्ति चैक समयं द्वितीयेऽवश्यमन्तरम् ॥१३६॥ - एक से लेकर बत्तीस तक अन्तर पड़े बिना सिद्ध हो तो आठ समय में होता है। नौंबे समय में तो अन्तर पड़ता ही है । तैंतीस से लेकर अड़तालीस तक सिद्ध होते हैं तो सात समय में होता है और आठवें समय में अन्तर पड़ता है । उनचास से साठ की संख्या तक सिद्ध होते हैं तो छ: समय तक में होता है और सातवें समय में अन्तर पड़ता है । एकसठ से बहत्तर तक पांच समय तक में सिद्ध होते हैं । छठे समय में अवश्य अन्तर पड़ता है। तिहत्तर से लेकर चौरासी तक सिद्ध होते हैं उसमें चार समय लगता है, पाचवें समय में अन्तर पड़ता है। पचासी से लेकर छियासी तक सिद्ध हों तब तीन समय में होता है और सत्तासी से एक सौ दो तक दो समय में सिद्ध होता है । एक सौ तीन से एक सौ आठ तक एक समय में सिद्ध होते हैं, दूसरे समय में अवश्य अन्तर पड़ता है। (१३३ से १३६) जघन्यमन्तरं त्वेक समयं परमं पुनः । षण्मासान्नास्ति सिद्धानां च्यवनं शाश्वता हि ते ॥१४०॥ सिद्ध के जीवों को सिद्ध रूप उत्पन्न होने में जघन्य अन्तर एक समय का है,
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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