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________________ (५८) संग्रहणी वृत्यभिप्रायस्त्वयम् यदिदमागमे पंच धनुः शतान्तुत्कृष्टं मानयुक्तं तद्दाहुल्यात्।अन्यथा एतद् धनुः पृथक्त्वैः अधिकमपि स्यात् तच्च पंच विंशत्यधिक पंचधनुः शतरूपं बोद्धव्यम्॥ सिद्ध प्राभृतेऽपि उक्तम् ओगाहणा जहण्णा रयणि दुगं अह पुणाइ उक्कोसा। पंचेव धणुसयाई धणुअ पुहुत्तेण अहिया इंति ॥ एतद् वृत्तिश्च- प्रथकत्व शष्दः अत्र बहुत्व वाची । बहुत्वं चेह पंचविंशतिरूपं द्रष्टव्यमिति ॥ इस सम्बन्ध में संग्रहणी की टीका में तो इस तरह कहा है कि- आगम में जो पांच सौ धनुष्य का उत्कृष्ट मान कहा है वह अधिकतः इस तरह होता है, ऐसा कहा है। यदि इस प्रकार न हो तो वह माप कभी धनुष्य के भिन्न रूप में लेकर पांच सौ से अधिक अर्थात् उदाहरण रूप में पांच सौ पच्चीस धनुष्य भी हो सकता है। टीका में इस तरह कहा है कि-पृथकत्व शब्द बहुत्ववाची है और यह बहुत्वं अर्थात् 'पच्चीस धनुष्य' समझना। . आद्य संहनना एवं सिद्धयन्ति न पुनः परे । संस्थानानां त्वनियमस्तेषु षट्स्वपि निर्वृत्तिः ॥१३१॥ प्रथम संघयण वाले अर्थात् वज्र ऋषभ नाराच संघयण वाले ही सिद्ध होते हैं, अन्य नहीं । संस्थान के सम्बन्ध में कुछ नियम नहीं है। छः संस्थानों में सिद्ध होते हैं। संहनन अर्थात् संघयण- शरीर का बन्धन ग्रन्थि या शरीर का संधि स्थान छः प्रकार का है - १- वज्र ऋषभ नाराच, २- ऋषभ नाराच, ३- नाराच, ४- अर्ध नाराच,५- कीलिका और ६- सेवार्त। सिद्ध में जाने वाला सर्व श्रेष्ठ प्रथम संघयण होता है। संस्थान अर्थात् शरीर की आकृति देवताओं की 'समचतुरस्र' चारों कोने से समान होती है। समचतुरस्त्र के सिवाय अन्य आकृतियां- १- हुंडक (बाघ मेष) २- ध्वज, ३- सुई, ४- बुलबुला, ५- मसर की दाल और ६- चन्द्र समान होते हैं। देव के बिना अन्य सर्व जीवों की इन छ: में से एक आकृति होती है। (१३१) पूर्व कोटयायुरू कर्षात् सिद्धयेनाधिक जीविनः।। जघन्यानववर्षायुः सिद्धयेन्न न्यून जीविनः ॥१३२॥ आयुष्य के सम्बन्ध में कहते हैं - उत्कृष्ट करोड़ पूर्व के आयुष्य वाला हो
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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