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________________ (३२) सर्वेषां रूपमेकैकमेषां ज्येष्ठ कनीयसाम् । मध्यमानां तु रूपाणि भवन्ति बहुधा किल ॥२०७॥ सर्व जघन्यों का और सर्व उत्कृष्टों का एक-एक ही रूप होता है और मध्यम का तो बहुत भेद होता है। (२०७) संख्यातभेदं संख्यातमसंख्यात विधं पुनः ।। असंख्यातमनन्तं चानन्त भेदं प्रकीर्तितम् ॥२०॥ जिस प्रकार की संख्या से गिनती हो सकती है वह प्रकार संख्यात कहलाता है, और जिस प्रकार से जिस तरह गिनती न हो सके उसे 'असंख्यात' कहते हैं और जिसका अन्त ही नहीं है वह संख्या अनन्त कहलाती है। (२०८.) प्रयोजनं त्वेतेषाम् - अभविअ चउत्थणं ते पचम्मि सम्माइ परिवडिअ सिद्धा। सेसा अट्ठमणंते पजथूलवणाइ बावीसम् ॥२०६॥ अनन्त का प्रयोजन इस प्रकार है- अभविअ चौथे'अनन्त' होते हैं, समकित से भ्रष्ट हुए जीव और सिद्धात्मा पांचवें अनन्त होते हैं और बादर पर्याप्त वनस्पति आदि शेष बाईस हैं वह आठवां अनन्त होता है। इन बाईस के नाम इस प्रकार हैं। (२०६) तेचामी- बायरपजत्तवणा बायरपज अपजबायर वणा य । बायर अपज बायर सुहमा पज्जवण सुहुम अपज्जा ॥२१०॥ सुहमवणा पजत्ता. पन्ज सुहमा सुहम भव्वय निगोया । वण एगिंदिय तिरिया मिथ्थादिट्ठी अविरया य ॥२११॥ सकसाइणो य छउमा सजोगि संसारि सव्व जीवा य । जह संभवमभहिया बावीसं अट्ट मेऽणते ॥२१२॥ १- बादर पर्याप्त वनस्पति, २- बादर पर्याप्त, ३- अपर्याप्त बादर वनस्पति, ४- बादरं अपर्याप्त, ५- बादर, ६- सूक्ष्म अपर्याप्त वनस्पति, ७- सूक्ष्म अपर्याप्त, ८- सूक्ष्म पर्याप्त वनस्पति, ६- सूक्ष्म पर्याप्त, १०- सूक्ष्म, ११- भवि, १२- निगोद, १३- वनस्पति, १४- एकेन्द्रिय, १५- तिर्यंच, १६- मिथ्या दृष्टि, १७- अविरति, १८- सकषायी, १६- छद्मस्थ, २०- संयोगी, २१- संसारी, २२- सर्वजीव। ये बाईस आठवां अनन्त हैं और वे एक दूसरे से अधिक से अधिक होते है। (२१० से २१२)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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