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________________ (३१) उत्कृष्ट असंख्य असंख्यात में एक रूप मिला ले तो 'जघन्य परीत्त अनंत' होता है । इसके बाद का और 'उत्कृष्ट परीत्त अनन्त' से पहले का वह 'मध्यम परीत्त अनन्त' तथा पहले अनुसार जघन्य परीत्त अनंत' का अभ्यास गुणाकार करके एक रूप बाद करते 'उत्कृष्ट परीत्त अनन्त' होता है और एक रूप बढ़ाने में आए तो 'जघन्य युक्त अनन्त' होता है । उसके बाद का अन्तिम ‘उत्कृष्ट' तक का 'मध्यम युक्त अनन्त' है और 'जघन्य युक्त अनन्त' का वर्ग करके उसमें से एक रूप का बाद करने से तो 'उत्कृष्ट युक्त अनन्त' होता है ऐसा पूर्व आचार्यों ने कहा है और एक मिलाने से तो 'जघन्य अनन्त अनंत' होता है । उसके बाद का अन्तिम 'उत्कृष्ट' तक का 'मध्यम अनन्त अनन्त' होता है। (१६७ से २०१) जघन्यानन्तानन्तं तत् वर्गयित्वा त्रिशस्ततः । क्षेपानमूननन्तान् षट. वक्ष्यमाणानियोजयेत् ॥२०२॥ अब उत्कृष्ट अनन्त अनन्त के विषय में कहते हैं - 'जघन्य अनंत अनंत' का तीन बार वर्ग करके उसमें आगे कहे छः अनन्त को मिलाना । (२०२) वह इस प्रकारतेचामी- वनस्पतीनिगोदानां जीवान् सिद्धांश्च पुद्गलान् । ... सर्व कालस्य समयान् सर्वा लोक नभोंशकान् ॥२०३॥ पुनस्त्रि वर्गिते जात राशौ तस्मिन् विनिक्षिपेत् । पर्यायान् केवलज्ञान दर्शनानामनन्तकान् ॥२०४॥ अनन्तानन्तमुत्कृष्टं भवेदेवं कृते सति । .. मेयाभावादस्य मध्ये नैव व्यवहृतिः पुनः ॥२०५॥ १- वनस्पति काय के जीव, २- निगोद के जीव,३- सिद्धात्मा, ४- पुद्गल के परमाणु, ५- सर्व काल का समय और ६- सर्व अलोकाकाश का प्रदेश । इनको मिलाने से जो राशि होती है उसे पुनः तीन बार वर्ग करना और उसमें केवल ज्ञान का तथा केवल दर्शन का अनन्त पर्याय मिलाना चाहिए । यह जो राशि बनती है वह 'उत्कृष्ट अनन्तानन्त' है परन्तु वह माप के पदार्थ से अभाव होने से यह संख्या व्यवहार में नहीं है। (२०३ से २०५) एवं च नवधानन्तं कर्मग्रन्थमते भवेत् । 'भवत्यष्टविधं किञ्च सिद्धान्ताश्रयिणांमते ॥२०६॥ . इस तरह 'अनन्त' के सिद्धान्तमत के अनुसार आठ और कर्मग्रन्थ के अनुसार नौ भेद होते हैं । (२०६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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