________________
( ५८० )
इत्थमेव तदुपरि त्रय एकस्ततः पुनः । उपर्यस्यापीतिपंच त्रिंशत्स्युः परमाणवः ॥ ७१ ॥ (चतुर्भिः कलापम् ।) वह इस तरह होता है - पांच परमाणु की अन्तर बिना तिरछी स्थापना करना, फिर इनके नीचे की ओर अनुक्रम से परमाणु की स्थापना करना । वह इस तरह से - तिरछे चार, फिर तीन, फिर दो और फिर एक । इस तरह करने से पंद्रह अंश वाली पांच पंक्तियों का प्रतर होगा । और फिर उसके ऊपर सर्व पंक्ति में अन्तिम अंशों को रखना, दस अंशो की स्थापना करना और इसके ऊपर और छ: अंशों की स्थापना करना और इसी तरह इसके ऊपर तीन की और इसके ऊपर एक की स्थापना करना । इस तरह यह पैंतीस परमाणु से होता है । ( ६८-७१)
युग्म प्रदेशं तु घनत्र्यस्त्रं चतुः प्रदेशकम् । चतुव्यों मांशावगाढं तदप्येवं भवेदिह ॥७२॥
पूर्वोक्ते प्रतरत्र्यस्त्रे त्रिप्रदेशात्मके किल । अणोरेकस्योर्ध्वमेकः स्थाप्यते परमाणुकः ॥७३॥
जिसके चार प्रदेश हों और जो चार आकाश प्रदेशों की अवगाही में रहा हो वह युग्म प्रदेशी त्रिकोण घन कहलाता है । वह पूर्वोक्त तीन प्रदेशी, तीन कोण प्रतर में एक परमाणु के ऊपर एक परमाणु का स्थापन करने से होता है। (७२-७३)
ओज प्रदेशं प्रतर चतुरस्त्रं नवांशकम् । नवाकाशंशावगाढमित्थं तदपि जायते ॥७४॥
तिर्यंग् निरन्तरं तिस्त्र पंक्तयस्त्रि प्रदेशिकाः । स्थाप्यन्ते तर्हि जायेत चतुरस्रम युग्मजम् ॥७५॥
जिसके नौ अंश होते हैं तथा नौ आकाश प्रदेश का अवगाह हो वह ओज प्रदेशी चार कोन प्रतर कहलाता है । यह सर्वथा अन्तर बिना तिरछे तीन प्रदेशी तीन श्रेणि की स्थापना करने से होता है । (७४-७५)
युग्मं प्रदेशं प्रतर चतुरस्त्रं तु तद् भवेत् । चतुरभ्रांशावगाढं चतुः प्रदेश सम्भवम् ॥७६॥ द्विद्वि प्रदेशे द्वे पंक्ती स्थाप्येते तत्र जायते । युग्म प्रदेशं प्रतरचतुरस्त्रं यथोदितम् ॥७७॥
जिसको चार आकाश प्रदेशों का अवगाह हो और यदि चार प्रदेशों से हुआ हो तो वह युग्म प्रदेशी चार कोन प्रतर कहलाता है । यह दो दो प्रदेश वाली दो . की श्रेणि स्थापना करने से होता है । ( ७६-७७)