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________________ (५५६) जिस तरह से एक राजा की तो इच्छा धन देने की होती है परन्तु उसका कोषाध्यक्ष किसी कारण प्रतिकूल हो जाये तो उस मनुष्य को धन नहीं मिलता वैसे ही दान का फल जानने वाले मनुष्य को द्रव्य और पात्र का योग हो फिर भी दानान्तराय कर्म की रुकावट से दान नहीं दे सकता है । (२४६-२५०) तथैवोपाय विज्ञोऽपि कृतयलोऽपि नासुमान् । हेतोः कृतोऽपि प्राप्नोति लाभं लाभान्तरायतः ॥२५१॥ और इसी तरह उपाय विज्ञ-जानकार मनुष्य के प्रयत्न करने पर भी किसी कारण से लाभ न मिलने पर उसके लाभान्तराय कर्म का उदय समझना चाहिए। (२५१) . भोगापभौगौ प्राप्तावप्यङ्गी भोक्तुं न शक्नुयात् । भोगोपभोगान्तराय विजितो मम्मणादि वत् ॥२५२॥ भोग और उपभोग के साधन पास में पड़े हों फिर भी मम्मण सेठ के समान प्राणी उन्हें भोग नहीं सकता, वह इसके भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मों का उदय है । इस तरह समझना । (२५२) इष्टानिष्ट वस्तु लब्धि परिहारादिषूद्यमम् । - शक्तोऽपि कर्तु तं कर्तुं नेष्टे वीर्यान्तरायतः ॥२५३॥ तथा इष्ट वस्तु की प्राप्ति हो और अनिष्ट वस्तु के परिहार के लिए यत्न करने की सामर्थ्य होने पर भी प्राणी वह नहीं कर सकता हो तो वहां उसका वीर्य अन्तराय कर्म का उदय समझना । (२५३) इस तरह अन्तराय कर्म वर्णन हुआ। ... ज्ञानानां च ज्ञानिनां च गुर्वादीनां तथैव च । ज्ञानोंपकरणानां चाशातानाद्वेषमत्सरैः ॥२५४॥ निन्दोपघातान्तरायैः प्रत्यनीकत्वनिह्व वैः । .. वनात्यावरण कर्म ज्ञानदर्शनयोर्भवी ॥२५५॥ (युग्मं ।) ज्ञान की, ज्ञानियों की, गुरुदेव आदि की तथा ज्ञान के उपकरणों की आशातना, द्वेष तथा मत्सर-जलन आदि करने से, निंदा करने से, उपघात करने से, अन्तराय करने से तथा निहव रूप करने से जीवात्मा ज्ञानावरणीय तथा दर्शना वरणीय कर्म बन्धन करता है । (२५४-२५५)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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