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________________ ५५८) उदयश्च भवत्यस्य केवलोत्पत्यनन्तरम् । वेद्यते चैतदग्लान्या धर्मोपदेशनादिभिः ॥२४५॥ सम्यक्त्ववान् जीव तीसरे जन्म के अन्दर मनुष्य के जन्म में रहकर बीस स्थानक तप की आराधना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म बन्धन करते हैं । उसका उदय केवल ज्ञान की उत्पत्ति होने के बाद होता है और वह पूर्ण उल्लासपूर्वक धर्मोपदेश आदि देने से भोगा जाता है । (२४४-२४५) . . ... यथा स्थाने नियमनं कुर्यान्निर्माण नाम तु । अंगोपांगानां गृहादि काष्ठानामिव वाकिः ॥२४६॥ .. २७- सतार-बढई घर आदि में लकडी को यथा योग्य स्थान पर रचना कर देता है वैसे ही जो कर्म प्राणी के अंगोपांग का यथा योग्य स्थान पर निर्माण कर देता है वह निर्माण नामकर्म है । (२४६) प्रति जिह्वादिना स्वीयावयवेनोपहन्यते । .. यतः शरीरी तदुपघात नाम प्रकीर्तितम् ॥२४७॥ २८- प्राणी प्रतिजिव्हा आदि अपने ही अवयवों द्वारा स्वयं उपघात प्राप्त करता है वह उपघात नामकर्म है । (२४७) इस तरह नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृति को अलग-अलग समझाया गया है । इस तरह सातवें नामकर्म का विवेचन संपूर्ण हुआ । अब अन्तिम आठवें अन्तराय कर्म के विषय में कहा जाता है: भवेद्दान लाभभोगोपभोग वीर्य विघ्नकृत् । अन्तरायं पंचविधं कोषाध्यक्ष समं ह्यदः ॥२४८॥ १- दानान्तराय, २- लाभान्तराय ३- भोगान्तराय, ४- उपभोगान्तराय और ५- वीर्यान्तराय; ये पांच प्रकार के अन्तराय कर्म हैं । ये एक राजा के कोषाध्यक्षखजांची के समान होते हैं । (२४८) यथा दित्सावपि नृपे न प्राणोति धनं जनः । ' प्रातिकूल्यं गते कोषाध्यक्षे केनापि हेतुना ॥२४॥ अपि जान् दान फलं वित्ते पात्रे च सत्यपि । तथा दातुंनशक्नोतिदानान्तराय विजितः ।।२५०।। (युग्मम्)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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