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________________ (५३८) तेभ्यश्च बादराः पर्याप्तकाः स्युरोधतोऽधिकाः । स्थूलापर्याप्त तरवस्ततोऽसंख्य गुणाः स्मृताः ॥१८॥ और इससे अधिक ओघतः बादर पर्याप्त हैं और इससे भी असंख्य गुणा बादर अपर्याप्त वनस्पतिकाय हैं । (११८) अपर्याप्ता बादराः स्युस्तेम्यो विशेषतोऽधिकाः । सामान्यतो बादरश्च विशेषाम्यधिकास्ततः ॥११६॥ इससे विशेष अधिक बादर अपर्याप्त और इससे भी विशेष अधिक सामान्यतः बादर होते हैं । (११६) असंख्येय गुणास्तेभ्यो सूक्ष्मा पर्याप्त भूरुहः । ... ततः सामान्यतः सूक्ष्मापर्याप्तका किलाधिकाः ॥१२०॥. ' इससे असंख्य गुना सूक्ष्म अपर्याप्त वनस्पतिकाय हैं और इससे भी अधिक सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्त होते हैं । (१२०) स्यु संख्येय गुणास्तेभ्यः सूक्ष्म पर्याप्तभूरुहः । इतोऽधिकाधिका ज्ञेया वक्ष्यमाणश्चतुर्दशः ॥१२१॥ सूक्ष्मा पर्याप्तका ओघात् सूक्ष्माः सामान्यतोऽपि च । भव्या निगोदिनश्चौघादोघाच्च वनकायिकाः ॥१२२॥ औघादेकेन्द्रिया ओघात्तिर्यंचश्च ततः पुनः । मिथ्यादृशश्चाविरताः सकाषायास्ततोऽपि च ॥१२३॥ छद्मस्थाश्च सयोगाश्च संसारिणस्तथौघतः । सर्वजीवश्चेति सार्वै महाल्पबहु तोदिता ॥१२४॥ कलापकं । इससे संख्य गुणा सूक्ष्म पर्याप्त वनस्पतिकाय हैं । इससे अधिक इस तरह चौदह जानना-ओघतः सूक्ष्म पर्याप्त , सामान्यतः सूक्ष्म, ओघतः भव्य, ओघतः निगोद, ओघतः वनस्पति, ओघतः एकेन्द्रिय, ओघतः तिर्यंच, मिथ्यादृष्टि, अविरति, कषायी, छद्मस्थ, सयोगी, संसारी, ओघ से सर्व जीव हैं । इस तरह सर्व प्रकार से बड़ा अल्प बहुत्व समझना चाहिए । (१२१ से १२४) एवं जीवास्ति कायो यो द्वारैः प्रोक्तः पुरोदितैः । । द्रव्य क्षेत्र काल भाव गुणैः स पञ्चधा भवेत् ॥१२५॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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