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________________ (५३७) इससे अधिक पर्याप्त द्वीन्द्रिय वाले जीव हैं और इससे अधिक पर्याप्त त्रीन्द्रिय जीव हैं । ऐसा परमेश्वर ने कहा है । (११०) तेभ्योऽपर्याप्त पंचाक्षा असंख्येय गुणास्ततः । अपर्याप्ताश्चतुस्त्रि द्वीन्द्रियाः स्युरधिकाधिकाः ॥११॥ इससे अपर्याप्त पंचेन्द्रिय असंख्य गुणा हैं और इससे अधिक से अधिक अपर्याप्त चतुरिन्द्रय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय हैं । (१११) तेभ्यः प्रत्येक पर्याप्ता द्रुमाः पर्याप्तकास्ततः । निगोदा बादराः स्थूल पृथ्व्यम्बु मरुतोऽपि च ॥११२॥ स्थूलापर्याप्तका अग्नि प्रत्येक दुनिगोदकाः । पृथ्वी जल वायवश्च सूक्ष्मा पर्याप्त वह्नयः ॥११३॥ पर्याप्त प्रत्येक द्रुमादयो द्वादशाप्यसंख्य गुणाः । क्रमतस्ततश्च सूक्ष्मापर्याप्ताःक्ष्माम्बुवायवोऽभ्यधिकाः॥११४॥विशेषक इससे असंख्य से असंख्य गुणा अनुक्रम से इस तरह बारह हैं- प्रर्याप्त प्रत्येक वनस्पति, पर्याप्त बादर निगोद, बादर पृथ्वीकाय, अपकाय और वायुकाय, स्थूल अपर्याप्त अग्निकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय, निगोद, पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय और सूक्ष्म अपर्याप्त. अग्निकाय. और इससे अधिक सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय क्रम हैं । (११२ से ११४) ततश्च संख्येय गुणाः पर्याप्त सूक्ष्म वह्नयः । · तंतः पर्याप्त सूक्ष्मक्ष्माम्भोऽनिला अधिकाधिकाः ॥११५॥ और इससे संख्यात गुणा पर्याप्त सूक्ष्म अग्निकाय हैं । इससे अधिक से अधिक पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय, अपकाय और वायुकाय हैं । (११५) . असंख्यजास्ततोऽपर्याप्तक सूक्ष्म निगोदकाः । ततः संख्यगुणाः पर्याप्तका सूक्ष्म निगोदकाः ॥१६॥ इससे असंख्य गुणा अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद हैं और इससे संख्यात गुणा पर्याप्त सूक्ष्म निगोद हैं । (११६) क्रमात्ततोऽनन्त गुणाश्चत्वारोऽमी अभव्यकाः । - भ्रष्ट सम्यकत्वाश्च सिद्धाः स्थूल पर्याप्त भूरुहः ॥११७॥ - इससे अनन्त गुणा अनुक्रम से अभव्य, समकित से गिरे हुए, सिद्धात्मा और फिर बादर प्रर्याप्त वनस्पति हैं । (११७)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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