SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५३५) बहुत विस्तार हो जायेगा इसलिए यहां व्यक्ति पूर्वक विवेचन नहीं करते । अतः जिसे विस्तार से जानने की इच्छा हो उसे इसको पांचवें अंग भगवती सूत्र के २४ वें शतक से जान लेना चाहिए। (६५) इस तरह भवसंवेध प्रकरण सम्पूर्ण हुआ । - अथाष्टनवते जीवं भेदानामुच्यते क्रमात् । क्रम प्राप्ताअल्प बहुता महाल्प बहुताभिधा ॥ ६६ ॥ अब संसारी जीव के महा अल्प बहुत्व के विषय में (द्वार ३७वां) कहते हैं। यहां जीव के अट्ठानवें भेद में कौन से अल्प हैं औन से बहुत हैं, उन सम्बन्धी विवेचन करते हैं । (६६) गर्भजा मनुजा स्तोका नार्यः संख्य गुणास्ततः । ताभ्यश्च स्थूल पर्याप्तग्नयोऽनुत्तर नाकिनः ॥६७॥ सबसे अल्प गर्भज मनुष्य हैं, इससे असंख्य गुणा स्त्रियां हैं और इससे संख्य गुण अनुक्रम से स्थूल पर्याप्त अग्निकाय के जीव और अनुत्तर विमान के देव हैं। (६७) क्रमाद् संख्यघ्नास्तेभ्यश्चोर्ध्व ग्रैवेयक त्रये । मध्यत्रयेऽधस्त्रये चाच्युते चैवारणेऽपि च ॥६८॥ प्राणतेऽथानतो स्वर्गे समुत्पन्नाः सुधाशिनः । क्रमेण संख्येय गुणाः सप्तप्येते निरूपिताः ॥६६॥ युग्मं । उससे संख्य गुणा अनुक्रम से तीन ऊर्ध्व ग्रैवेयक का, फिर तीन मध्य ग्रैवेयक का, तीन अधो ग्रैवेयक का, फिर अच्युत देवलोक का, आरण देवलोक का, प्राणत देवलोक का, और आनंत देवलोक का देव - ये सात हैं । (६-६६) ततो माघवती जाता मघा जाताश्च नारकाः । • सहस्रार सुरास्तेभ्यो महाशुक्र सुरास्ततः ॥१००॥ तेभ्योऽरिष्टा नैरयिकास्तेभ्यो लांतक नाकिनः । तेभ्यो जना नारकाश्च ब्रह्मलोक सुरास्ततः ॥१०१॥ तेभ्यः शैला नैरयिका माहेन्द्र त्रिदशास्ततः । तेभ्यः सनत्कुमारस्था वंशा नैरयिकास्ततः ॥१०२॥ तेभ्यः समूर्छिम नरास्तेभ्यश्चेशान नाकिनः । क्रमादसंख्येय गुणाश्चतुर्दशाप्यमी स्मृताः ॥१०३॥कलापकम्॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy