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________________ (५१४) इति योनि संवृतत्वादि ॥६॥ इनमें कई शीत योनि हैं और कई उष्ण योनि हैं और संवृत तथा विवृत इन दोनों में से इनकी संवत योनि है और सचित, अचित व सचिताचित तीन योनि में से एक अचित योनि है । ऐसा जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है। (५) यह योनि संवृत द्वार है। (६) दस वर्ष सहस्राणि जघन्यैषां भवस्थितिः । . . . उत्कृष्टा तु त्रयस्त्रिशत्सागरोपम संमिता ॥६॥ इति भव स्थितिः ॥७॥ कायस्थितिस्तेषां भवस्थितिरेव॥८॥ इनकी भवस्थिति जघन्यतः दस हजार वर्ष की है और उत्कर्षतः तैंतीस सागरोपम की है । (६) यह भवस्थिति द्वार है। (७) . जितनी भव स्थिति है वैसी ही उनकी कायस्थिति होती है। यह आठवां द्वार । है। (८) कायस्थितिस्त्रसत्वे स्याज्जघन्यान्तर्मुहूर्तिकी । द्वौ सागर सहस्रौ च कियद्वर्षाधिको गुरुः ॥७॥ त्रस रूप में इनकी कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कर्षतः दो हजार सागरोपम से कुछ अधिक है। (७) . देहास्त्रयस्तैजसं च कार्मणं वैक्रि यं तथा । . स्वाभाविक कृत्रिमयोर्हडं संस्थानमंगयोः ॥८॥ इति देहाः संस्थानं च ॥६-१०॥ इनकी तैजस, कार्मण और वैक्रिय- ये तीन देह होती हैं और इनका स्वभाविक और कृत्रिम दोनों शरीर का हुंडक संस्थान होता है। (८) ये देह तथा संस्थान द्वार हैं । (१०) शतानि पंच धनुषां ज्येष्ठा स्वाभाविकी तनुः । लघ्व्यं गुलासंख्य भागमानारम्भक्षणे मता ॥६॥ अब देहमान के विषय में कहते हैं- इनका स्वभाविक शरीर उत्कृष्टतः पांच
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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