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दूसरा अद्धा के विषय में कहा गया है। अब तीसरे प्रकार क्षेत्र' के विषय में कहते हैं - मस्तक पर उत्पन्न हुए एक दिन से सात दिन के बाल पूर्वोक्त, नाप वाले कुए में पूर्वोक्त रूप से ही भर कर फिर उसको स्पर्श कर रहते आकाश प्रदेशों का समय समय पर आकर्षण करना, इस तरह करते कुए खाली होते हैं उसमें जो असंख्यात काल चक्र व्यतीत होता है उसे जिनेश्वर भगवान् ने बादर क्षेत्र पल्योपम कहा है। (१०६ से १०८)
कोटा कोटयो दशैषां च बादरं क्षेत्र सागरम् । । सुबोधतायै सूक्ष्मस्य कृतमेतन्निरूपणम् ॥१०६॥ छिन्नरसंख्यशः प्राग्वत् केशाग्रैः पल्यतो भृतात् । समये समये चैकः ख प्रदेशोपकृष्यते ॥११०॥ एवं के शांशसंस्पृष्टा भांश कर्षणात् । तस्मिन्निः शेषिते सूक्ष्मं क्षेत्र पल्योपमं भवेत् ॥१११॥
इस तरह दस कोटा कोटि पल्योपम होता है तब एक बादर क्षेत्र सागरोपम होता है और पूर्व के समान ही असंख्यात टुकड़े हुए केशाग्र इस तरह कुएं में भरकर फिर उन केशाग्ने को स्पर्श किए और नहीं स्पर्श किए इस प्रकार दोनों जात के आकाश प्रदेशों को आकर्षण करते हुए कुएं को खाली करने में जितना समय लगता है उतने समय का एक सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम होता है । (१०६ से १११) .
यहाँ केशाग्र के खंड को स्पर्श किया हो और स्पर्श न किया हो - इस तरह दोनों प्रकार के आकाश प्रदेशों के आकर्षण की बात कही है। उसके बाद प्रत्येक केशाग्र के असंख्य विभाग करने की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ये दोनों समान हैं परन्तु प्रवचन सारोद्धार वृत्ति आदि पूर्व ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है इसलिए यहाँ पर भी ऐसा कहा है । इस प्रकार दस कोटा कोटि पल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम होता है।
नन्वेवं निचिते पल्ये बालाग्रैः सम्भवति किम् । नभः प्रदेशा अस्पृष्टास्त तदुद्धारो यदीरितः ॥११२॥ उच्चते सम्भवत्ये वा स्पृष्टास्ते सूक्ष्म भावतः । नभोऽशकानां बालाग्रखण्डौघात्तादृशादपि ॥११३॥ यथा कूष्माण्डभरिते मातु लिंगानि मञ्चके । . यान्ति तैश्च भृते धात्री फलानि बदराण्यपि ॥१४॥