SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४६७) . जिसने शुभ कर्म उपार्जन किया हो और देव गति प्राप्त करनी हो वह पंचेन्द्रिय मनुष्य अथवा तिर्यंच 'द्रव्यदेव' कहलाता है। सार्वभौम चक्रवर्ती राजा नरदेव कहलाता है, साधु धर्मदेव कहलाता है, अरिहंत देवाधिदेव कहलाते हैं और जिनका अभी वर्णन किया है वे सब देव ‘भावदेव' कहलाते हैं। (६८ से ७०) अपने यहां भावदेव का अधिकार है। इस तरह देव के भेद का वर्णन हुआ। यह प्रथम द्वार है। (१) त्रिलोक्येऽपि स्थानमेषां क्षेत्रलोके प्रवक्ष्यते । . स्थानोत्पाद समुद्घातैर्लोका संख्यांशगा अमी ॥७१॥ इति स्थानम् ॥२॥ अब इनके स्थान के विषय में वर्णन करते हैं- इन देवों का स्थान तीनों लोकों में है । इस सम्बन्धी क्षेत्र लोक में वर्णन करेंगे। इनका स्थान- उत्पाद और समुद्घात द्वारा लोक के असंख्यात भाग में रहते हैं। (७१) यह स्थान द्वार है। (२) पर्याप्तयः षडप्येषां पंचाप्यै कविवक्षया । . वाक्चेत सोदेश प्राण एतेषां परिकीर्तिताः ॥७२॥ इति पर्याप्तः ॥३॥ • . अब इनकी पर्याप्ति के विषय में कहते हैं- देवों को छ: पर्याप्ति होती हैं परन्तु मन और वाणी को एकत्रित गिने तो पांच कहलाती हैं, प्राण इनके दस होते हैं। (७२) . यह पर्याप्ति द्वार है। (३) चतस्त्रो योनि लक्षाः स्युः लक्षाश्च कुलकोटिजाः । द्वादशैषाम चित्ता स्याद्योनिः शीतोष्ण संवृत्ता ॥७३॥ इति द्वारत्रयम् ॥४ से ६॥ और इनकी योनि संख्या चार लाख है, कुल संख्या बारह लाख है। इनकी योनि तीन प्रकार की है- सचित, शीतोष्ण और संवृतः । (७३) ये तीन द्वार हैं। (४ से ६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy