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________________ (४६६) उपरिस्थोपरितनं तजा प्रैवेयकाः सुराः । विजयादि विमानोत्थाः पंचधानुत्तरामराः ॥६५॥ १- अधस्तनाधस्तन, २- अधस्तनमध्यम, ३- अधस्तनोपरितन, ४- मध्यमाधस्तन, ५- मध्यम मध्यम, ६- मध्यमोपरितन, ७- उपरिस्थाधस्तन, ८- उपरिस्थमध्यम और - उपरिस्थ उपरितन; इन नौ ग्रैवेयकों में उत्पन्न हुए नौ प्रकार के ग्रैवेयक देव होते हैं और विजय आदि विमानों में उत्पन्न हुए पांच प्रकार के अनुत्तर देव होते हैं। (६३ से ६५) सारस्वतादित्य वह्नि वरुणा गईतोयकाः । .... तृषिताव्याबाधाग्नेयरिष्टा लोकान्तिका अमी ॥६६॥ तथा नौ प्रकार के लोकांतिक देव होते हैं- १- सारस्वत, २- आदित्य, ३- वह्नि, ४- वरुण, ५- गर्दतोयक, ६- तृषित, ७- अव्याबाध, ८- आग्नेय और ६- रिष्ट। (६६) पर्याप्तापर भेदेन सर्वेऽपि द्विविधा अमी । जाताः षट्पंचाशमेवं सुरभेदाः शतत्रयम् ॥६७॥ .. और इन सर्व देव के १- पर्याप्त और २- अपर्याप्त, इस तरह दो भेद होते हैं । अतः कुल मिलाकर देवों के भेद २५+ १०५+१०+३८ = १७८x२ = ३५६ होते हैं। (६७) पंचमांगे तु.... द्रव्यदेवा नरदेवा धर्मदेवास्तथापरे। देवाधिदेवा ये भावदेवास्ते पंचमा मताः ॥८॥ पांचवें अंग भगवती सूत्र में पांच प्रकार के देव कहे हैं- १- द्रव्यदेव, २- नरदेव, ३- धर्मदेव, ४- देवाधिदेव और ५- भावदेव। (६८) - तत्र च-पंचेन्द्रियो नरस्तिर्यक् सम्पादितशुभायतिः। उत्पत्स्यते यो देवत्वे द्रव्यदेवः स उच्यते ॥६६॥ . नरदेवाः सार्वभौमा धर्मदेवास्तु साधवः । देवाधिदेवा अर्हन्तो भावदेवाः सुरा इमे ॥७॥ इह भाव देवैः अधिकारः॥ . इति भेदाः ॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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