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________________ ( ४६० ) मांसानि वह्निपक्वानि जीर्ण मद्यानि ते नराः । यावद्दिनानि द्वित्राणि भुंजानाः सुखमासते ॥२३॥ तावद् भटाः सुसन्नद्धाः रत्नद्वीपनिवासिनः । संयोजितान् घरट्टांस्तान् वेष्टयन्ति समन्तत् ॥२४॥ वर्ष यावद्वाहयन्ति घरट्टानतिदुःसहान् । तथापि तेषामस्थीनि न स्फुटन्ति मनागपि ॥ २५ ॥ ते दारुणानि दुःखानि सहमाना दुराशयाः । प्रपीड्यमाना वर्षेण म्रियन्तेऽत्यन्तदुर्भराः ॥२६॥ परन्तु वे अग्नि में पकाये हुए मांस को तथा पुराने मद्य को दो- तीन दिन तक सुखपूर्वक आनंद में खाते रहते हैं, इतने में रत्नद्वीपवासी सशस्त्र सुभट वहां आकर उस चक्की को चलाकर चारों तरफ से घेर लेते हैं वे घूम नहीं सकते फिर भी उन्हें वर्ष दिन तक घुमाया करते हैं, फिर भी उनकी अस्थि लेश मात्र टूटती. नहीं । ऐसे भयंकर दुःखों को सहन करते हुए वे एक वर्ष के अन्त में मृत्यु प्राप्त करते हैं । (२३ से २६) अथाण्डगोलकांस्तेषां जनास्ते रत्नकांक्षिणः । चमरी पुच्छवालाग्रैर्गुम्फित्वा कर्णयोर्द्वयोः ॥२७॥ निबद्धय प्रविशन्त्यब्धौ तानन्ये जलचारिणः । कुलीरतन्तु मीनाद्याः प्रभवन्ति न बाधितुम् ॥२८॥ युग्मं । इति महानिशीथ चतुर्थाध्ययनेऽर्थतः ॥ फिर रत्न प्राप्ति की इच्छा वाले वे इनके अडंगोलकों को चमरी पूंच्छ के बाल से गूंथकर दोनों कानों में लटकाकर समुद्र में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार करने से कुलीर, मछली, तंतु आदि जलचर जीव उनको कुछ नुकसान नहीं कर सकते हैं। (२७-२८) यह भावार्थ ‘महानिशीथ' सूत्र के चौथे अध्ययन में कहा है। पिशांचा भूतयक्षाश्च राक्षसाः किन्नरा अपि । किंपुरुषा महोरगा गन्धर्वा व्यन्तरा इमे ॥२६॥ देवों का दूसरा प्रकार जो व्यन्तर का है, उसके भेद इस प्रकार हैं पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व। (२६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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