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________________ (४८८) अस्याकार पत्र युक्तं वनं स्त्रजति सप्तमः। धनुर्मुक्तार्धचन्द्रादि वाणैर्विध्यति चाष्टमः ॥८॥ नवमः पाककृत्तेषां कुम्भादौ दशमः पुनः । खण्डयित्वासकृत् श्लक्ष्ण मांसखण्डानि स्वादति ॥६॥ तान् कण्ड वादौ पचत्येकादशश्च द्वादशः सृजेत् । . नदी वैतरणी तप्तरक्त पूयादि पूरिताम् ॥१०॥ कदम्ब पुष्पाद्याकार वालुकासु पचेत्परः । । नश्यतस्तान् महाशब्दो निरूणद्धि चतुर्दशः ॥११॥ आरोप्य शाल-लीवृक्षं वनकंटक भीषणाम् । खर स्वरः पंचदश समकर्षति नारकान् ॥१२॥ सबसे पहला परमाधामी नारकी जीव को ऊँचा उठाकर पछाड़ता है। दूसरा उसको भट्टी में पकाया जा सके इस प्रकार टुकड़े करता है, तीसरा उसके आंत तथा हृदय आदि का भेदन करता है। चौथा उनको काटता है, पांचवां उनको भालें में पिरोता है, छठा उसके अंगोपांग तोड़ता है, सातवां तलवार जैसे पत्तों का बन बनाता है। आठवां धनुष में से छोड़े हुए अर्ध चन्द्राकार बाणों से उनका छेदन करता है, नौवां उनको पकाता है, दसवां उनके नरम मांस के टुकड़े-खंडन कर खाता है, ग्यारहवां इनको कुंड आदि में पकाता है, बारहवां गरमागरम खून-पीब आदि से भरी वैतरणी नदी बनाता है, तेरहवां कदम्बपुष्पं आदि के आकार वाली रेती में उनको भूनता है, चौदहवां भागने का प्रयत्न करने वाले को जोर से आवाज देकर रोकता है और पंद्रहवां वज्र से घबड़ाये हुए को भयंकर शाल्मली वृक्ष के ऊपर चढ़ाकर फिर खींचता है। परमाधर्मिकास्ते च संचितानन्त पातकाः । मृत्वाण्डगोलिकासयोत्पद्यन्तेऽत्यन्तदुःखिताः ॥१३॥ ये परमाधार्मिक इस प्रकार अनन्त पाप संचित कर अत्यन्त दुःख में मृत्यु प्राप्त कर अंडगोलंक उत्पन्न होता है। (१३)वह इस प्रकार - यत्र सिन्धुः प्रविशति नदी लवण वारिधिम् । योजनैर्दिशि याम्यायां पंचपंचाशता ततः ॥१४॥ अस्ति स्थलं वेदिकान्तः प्रतिसन्तापदायकम् । प्रमाणतो योजनानि सार्धानि द्वादशैव तत् ॥१५॥.
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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