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________________ (४८०) इति अनन्तरातः अभव्ययोषिताः क्षीराद्याश्रव संयुताः । न स्युश्चर्तुदशै तासां ततोज्ञेयाश्चर्तुदश ॥१०३॥ इति अनन्तराप्तिः ॥१५॥ और अभव्य स्त्रिीयों को ये तेरह तथा क्षीरमधुआज्य आश्रव लब्धि- इस तरह चौदह नहीं होतीं परन्तु शेष चौदह होती हैं। (१०३) यह अनन्तराप्ति द्वार है। (१५) अनन्तरभवे चैते प्राप्य मानुष्यकादिकम् । . सिद्धयन्त्येकत्र समये विंशतिर्नाधिकाः पुनः ॥१०४॥ तत्रापि पुंमनुष्येभ्यो जाता सिद्धयन्ति ते दश । नारीभ्योऽनन्तरं जाताः क्षणे ह्येकत्र विंशतिः ॥१०॥ इति समये सिद्धिः ॥१६॥ अब इनकी समय सिद्धि के विषय में कहते हैं- यह गर्भज मनुष्य अनन्तर जन्म में मनुष्यत्व प्राप्त करके एक समय में केवल बीस की संख्या में सिद्धि प्राप्त कर सकता है, विशेष नहीं। इसमें भी पुरुषों में से अनन्तर जन्म में मनुष्य में आये हों तो दस ही सिद्ध होते हैं, स्त्रियों में से अनन्तर जन्म में मनुष्यत्व प्राप्त किया हो वहीं बीस सिद्ध होते हैं। (१०४-१०५) यह समय सिद्ध द्वार है। (१६) लेश्याहारदिशः सर्वा एषां संहननान्यपि । . सर्वे कषायाः स्युः संज्ञाश्वेन्द्रियाण्यखिलान्यपि ॥१०६॥ लेश्याश्चतस्त्रः कृष्णाद्या भवन्त्य संख्य जीविनाम । एषामाद्यं संहननमेकमेव प्रकीर्तितम् ॥१०७॥ ___ इति द्वारषट्कम् ॥१७-२२॥ अब छः द्वार का वर्णन एक साथ करते हैं - गर्भज मनुष्य को सर्वलेश्या होती हैं, सर्व दिशाओं का आहार होता है सर्व प्रकार का संघयण होता है, सर्व कषाय होते हैं, सर्व संज्ञायें होती हैं, और सर्व इन्द्रियाँ होती हैं । अपवाद से असंख्यात आयुष्य वाले को कृष्ण आदि चार ही लेश्या होती हैं और केवल पहला संघयण होता है। (१०६-१०७)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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