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________________ ( ४७४ ) निर्ग्रन्थ के सर्व गुणों से युक्त हो फिर भी मिथ्यादृष्टि कहलाता है, इसका कारण यह है कि एक भी पद में जिसकी अश्रद्धा हो उसेमिथ्यादृष्टि समझना। ऐसा सूत्र वचन है। (७१) सूत्र लक्षणं चैवमाहु: सुत्तं गणहर रइयं तहेव पत्ते अबुद्धरइयं च । सुअ केवलिणारइयं अभिन्न दस पुव्विणा रइयं ॥७२॥ सूत्र का लक्षण इस तरह से समझना - जो गणधर ने रचना की हो, प्रत्येक. बुद्ध द्वारा रचना हुई हो, श्रुत केवली भगवन्त ने रचना की हो अथवा पूर्ण दस पूर्वधारी ने रचना की हो, वह सूत्र कहलाता है। (७२) देवेषु गच्छतामेषां स्यादुक्तो गति गोचरः । न त्वेषां गतिरेषैवेत्याशक्यं मति शालिभिः ॥७३॥ यह सब जो गति कही हैं उसी ही गति में सब मनुष्य जाते हैं ऐसा मेरा कहने का भावार्थ नहीं है। भावार्थ तो इस प्रकार है कि जो मनुष्य देवगति में जाने वाला होता है वह उसी जाति की देवगति में जाता है। (७३) कांदर्पिकादिलक्षणं चैवम् कंदर्पः परिहासोऽस्ति यस्य कांदर्पिकश्च सः । कंदर्प विकथाशंसी तत्प्रशंसोपदेश कृत् ॥७४॥ नाना हास कलाः कुर्वन् मुख तूर्यांग चेष्टितैः । अहसन् हासयंश्चान्यान् नाना जीवरूतादिभिः ॥७५॥ युग्मं । पूर्वोक्त कांदर्पिक आदि के लक्षण इस तरह हैं- कंदर्प अर्थात् परिहास, यह जिसमें हो वह कांदर्पिक कहलाता है। कंदर्प अर्थात् काम सम्बन्धी विकथा करने वाला, इसकी प्रशंसा और उपदेश देने वाला, मुख की आवाज से अथवा शरीर की चेष्टा से नाना प्रकार का हास्य- कुतूहल उत्पन्न करने वाला, स्वयं गंभीर रहकर नाना प्रकार के. प्राणियों के समान आवाज निकालकर दूसरों को हंसाने वाला कांदर्पिक कहलाता है। (७४-७५) किल्विषं पापमस्यास्ति स किल्विषिक उच्यते । मायावी ज्ञान सद्धर्माचार्य साध्वादि निन्दकः ॥ ७६ ॥ 1 किल्विष अर्थात् पाप, यह जिसमें हो वह किल्विषिक है । माया- कपट
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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