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का विराधक होता है वह जघन्यतः भवनपति और उत्कर्षतः ज्योतिष देवलोक में जाता है। (६५)
तापसानामपि तथा तावेव गति गोचरौ । कांदर्पिकाणां भवनधिप सौधर्मताविषौ ॥ ६६ ॥ तथा तापसी की भी इसी तरह ही गति होती है, जब भवनपति में और उत्कर्षतः सौधर्म देवलोक में जाता है। (६६)
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चरकाणां परिव्राजां भवन ब्रह्मताविषौ । सौधर्मांतकौ कल्पौ ख्यातौ किल्विषिकांगिनाम् ॥६७॥ विमानेषूत्पद्यमानापेक्षयेदं यतोऽन्यथा I सन्ति किल्विषिका देवा भवनाधिपतिष्वपि ॥६८॥
चरक परिव्राजक ज्ञघन्यतः भवनपति में और उत्कृष्टतः ब्रह्म देवलोक में जाता है और किल्विषि जीव जघन्य से सौधर्म देवलोक और उत्कृष्ट से लांतक देवलोक में जाता है । यह जो कहा है कि यह वैमानिक में उत्पन्न होता है, वह इसकी अपेक्षा से कहा है, क्योंकि ऐसा न होता हो तो भवनपति में किल्विष देव हैं। (६७-६८)
आजीविकाभियोगांनां भवनाच्युतताविषौ ।
निन्हवानां च भवनेशान्त्य ग्रैवेयकौ किल ॥६६॥
जघन्यतः
आजीविका मति से वेष धारण किया हो और अभियोगिक जाति वाले को जघन्यतः भवनपति में और उत्कृष्टतः अत्युत देवलोक में स्थान मिलता है तथा निन्हव की गति जघन्यतः भवनपति तक और उत्कर्ष से अन्तिम ग्रैवेयक तक होती है। (६६)
'भव्यानामप्यभव्यानां साधुवेष गुणा स्पृशाम् ।
अपि मिथ्यादृशामेष विषयः सत्क्रिया बलात् ॥७०॥
तथा भव्य अथवा अभव्य साधु के वेष वाला हो और साधु के गुण वाला हो, वह चाहे मिथ्या दृष्टि हो फिर भी उसकी सत्क्रिया के कारण वही गति होती है। (७०)
निग्रंथ गुणवत्त्वेऽपि ते स्युः मिथ्यादृशो यतः । अश्रद्दधन् पदमपि मिथ्यात्वी सूत्र भाषितम् ॥७१॥