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________________ (४७१) संख्यायुषां वैक्रियं साधिकैक लक्षयोजनम् । उत्कर्षेण जघन्याच्चांगुल संख्यांश संमितम् ॥५४॥ • संख्यात् आयुष्य वाले मनुष्य का वैक्रिय शरीर उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक होता है और जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना होता है। (५४) आहारक शरीरं यत् स्यादेषां लब्धिशालिनाम् । श्रुतके वलिनां तत्तु मानतो हस्तसंमितम् ॥५५॥ इति अंगमानम् ॥१॥ और लब्धिशाली श्रुत केवली का जो आहारक शरीर होता है, वह केवल एक हस्तप्रमाण होता है। (५५) यह अंगमान द्वार है। (११) स्युः सप्तापि समुद्घाता नृणां संख्येय जीविनाम् । असंख्येयायुषामाद्यास्त्रय एव भवन्ति ते ॥५६॥ इति समुद्घाताः ॥१२॥ ___ अब समुद्घात. के विषय में कहते हैं- संख्यात जीव मनुष्य को सात के सात पूरे होते हैं, असंख्य आयुष्य वाले मनुष्य को पहले तीन होते हैं। (५६) यह समुद्घात द्वार है। (१२) यान्ति सर्वे सुरेष्वेव नरा असंख्य जीविनः । । निजायुः समहीनेषु नाधिक स्थितिषु क्वचित् ॥५७॥ ततोन्तर द्वीप जाता भवन व्यन्तरावधि । यान्तीशानदिवं यावत् हरिवर्षादि जास्तु ते ॥८॥ सौधर्मान्तं हैमवतहैरण्यवतजा इमे । जघन्यापि यदीशानेऽधिक पल्योपमा स्थितिः ॥५६॥ अब इनकी गति के विषय में कहते हैं - असंख्य आयुष्य वाले सर्व मनुष्य अपने जितनी ही आयुष्य वाले अथवा अपने से कम आयुष्य वाले देवता में जाते हैं, अपने से अधिक स्थिति वाले देव में नहीं जाते हैं। इस तरह होने से अन्तरद्वीप .. में जन्मे हुए भवनपति और व्यन्तर तक जाते हैं, और हरिवर्ष आदि क्षेत्र में जन्म हुए इशान देवलोक तक जाते हैं तथा हैमवत और हिरण्यवत क्षेत्र में जन्म हुए सौधर्म
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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