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________________ (४७०) पूर्वाणां कोटयः सप्त तथा पल्योपमत्रयम् । भाव्या गर्भजतिर्यग्वदेषां कायस्थितिर्गुरुः ॥४६॥ इति कायस्थितिः ॥८॥ इनकी कायस्थिति का वर्णन कहते हैं- उत्कृष्टतः गर्भज तिर्यंच के समान तीन पल्योपम और सात कोटि पूर्व की समझना। (४६) यह कायस्थिति द्वार है । (८) संख्येय जीविनां देहाः पंचासंख्येय जीविनाम् । भवेत् देहत्रयमेव विनाहारक वैकि ये ॥५०॥ इति देहाः ॥॥ अब देह-शरीर के विषय में कहते हैं- संख्यात आयुष्य वाले मनुष्य को पांच होते हैं। असंख्यात आयुष्य वाले मनुष्यों को आहारक और वैक्रिय- ये दो शरीर नहीं होते, केवल तीन शरीर ही होते हैं। (५०) : यह देह द्वार है । (६) संख्येय जीविनां नृणां संस्थानान्यखिलान्यपि ।' चतुरस्त्र भवेदेतदसंख्येयायुषां पुनः ॥५१॥ इति संस्थानम् ॥१०॥ .. संस्थान के विषय में कहते हैं- संख्यात आयुष्य वाले मनुष्यों को सब ही होते हैं, असंख्यात आयुष्य वाले को केवल 'समचतुरस्र' अर्थात् समचौरस होता है । (५१) यह संस्थान द्वार है । (१०) शतानि पंच धनुषां वपुः संख्येय जीविनाम् । गव्यूतत्रयमन्येषामुत्कर्षेण प्रकीर्तितम् ॥५२॥ जघन्यतोऽङ्गलासंख्य भागमानमिदं भवेत् । उभयेषां तदारम्भकाल एवास्य सम्भवः ॥५३॥ अब देहमान कहते हैं- संख्यात् आयुष्य वाले मनुष्य का उत्कृष्ट पांच सौ धनुष्य का होता है, असंख्य आयुष्य वाले मनुष्य का केवल तीन कोस का कहा है। परन्तु दोनों का जघन्य देहमान तो अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना होता है, वह इसके आरम्भ काल में ही संभव है। (५२-५३)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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