SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४६४) इनकी दृष्टि मिथ्यादृष्टि होती है । इनके ज्ञान में प्रथम के दो अज्ञान होते हैं, दर्शन में पहले दो दर्शन होते हैं और इससे इनके चार उपयोग होते हैं। (१५) ये चार द्वार हैं । (२५ से २८) साकार न्योपयोगाशाज्ञान दर्शन वत्तया । विकलाक्षवदाहारकृतः कावलिंक बिना ॥१६॥ इति आहारः ॥२६॥ इनको ज्ञान और दर्शन दोनों से ये उपयोग साकार और निराकार दोनों होते. हैं। आहार की बात विकलेन्द्रिय से मिलती है, अन्तर इतना है कि इनको कवलाहार नहीं होता। (१६) यह आहार द्वार है । (२६) आद्यं गुणस्थानमेषामिदं योगत्रयं पुनः । औदारिकस्तन्मिश्रश्च कार्मणश्चेति कीर्तितम् ॥१७॥ इति द्वारद्वयम् ॥३०-३१॥ . इनका प्रथम गुण स्थान होता है और इनको तीन योग होते हैं- औदारिक, मिश्र औदारिक और कार्मण। (१७) ये दो द्वार हैं । (३०-३१) अंगुल प्रमित क्षेत्र प्रदेश राशिवर्तिनि । तृतीय वर्गमूलघ्ने वर्गमूले किलादिमे ॥१८॥ यावान् प्रदेश राशिः स्यात् खंडास्तावत् प्रदेशकाः । यावन्त एकस्यामेक प्रादेशिक्यां स्युरावलौ ॥१६॥ .. तावन्तः संमूर्छिमा हि मनुजा मनुजोत्तमैः । निर्दिष्टा दृष्टविस्पष्ट सचराचर विष्ट पैः ॥२०॥ त्रिभिर्विशेषकम्। इति मानम् ॥३२॥ अब इनके मान-माप के विषय में कहते हैं- अंगुल प्रमाण क्षेत्र के प्रदेश की राशि के रहते तीन वर्गमूल करके पहले वर्ग मूल को तीसरे वर्गमूल के साथ गुणा करने से जितना प्रदेश आता है उतने प्रदेश वाला, एक प्रदेशी, एक श्रेणी के अन्दर जितने खण्ड हों उतने संमूर्छिम मनुष्य होते हैं। इस प्रकार श्री जिनेश्वर भगवन्त का वचन है । (१८ से २०)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy