SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 491
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४५४) इति अनन्तराप्तिः समये सिद्धिश्च ॥१५॥१६॥ · पंचेन्द्रिय तिर्यंच अनन्तर भव में समकित से लेकर मोक्ष तक प्राप्त कर सकता है तथा एक समय में दस ही मोक्ष में जाते हैं। (१६६) ये अनन्तर तथा समयसिद्धि द्वार है । (१५-१६) लेश्यात्रितयमाद्यं स्यात् संमूर्छिम शरीरिणाम् । गर्भजानां यथायोगं लेश्याः षडपि कीर्तिताः ॥१७॥ इति लेश्याः ॥१७॥ इसमें जो संमूर्छिम होता है उसकी प्रथम तीन लेश्या होती हैं और जो गर्भज होता है उसकी योग्यता अनुसार छः लेश्या होती हैं। (१७०) यह लेश्या द्वार है । (१७) षडप्याहार ककु भो द्वयानामन्त्यमेव च । सांमूर्छानां संहननमन्येषामखिलान्यपि ॥१७१॥ संमूर्छिम और गर्भज दोनों पंचेन्द्रिय तिर्यंच को आहार छः दिशाओं का होता है। संमूर्छिम को अन्तिम छठा संघयण होता है और गर्भज को छः संघयण होते हैं । (१७१) ___ इस विषय में कहा है "अत्र चजीवाभिगमाभिप्रायेण संमूर्छिमपंचांक्ष तिरश्चामेवएकं संहननं संस्थान च स्यात्। षष्ट कर्म ग्रन्थाभिप्रायेण तु षड्पि तानि स्युः। इति अर्थतः संग्रहणी बृहद् वृत्तौ ॥" इति आहारदिक् संहनन च ॥१८-१६॥ जीवाभिगम सूत्र के अभिप्राय से संमूर्छिम को एक अन्तिम ही संघयण और संस्थान होता है। छठे कर्मग्रन्थ के मतानुसार तो ये छः होते हैं । इसका भावार्थ संग्रहणी सूत्र की वृहद् वृत्ति में भी कहा है। ये आहार एवं संहनन द्वार हुए । (१८-१६) सर्वे कषायाः संज्ञाश्च निखिलानीन्द्रियाणि च । द्वयानां संमूर्छिमाः स्युर संज्ञिनः परेन्यथा ॥१७२॥ इति कषाय संज्ञेन्द्रिय संज्ञिताः ॥२०-२३॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy