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________________ (४५३) असंख्यातवें भाग वाली स्थिति ही नहीं है। इसी कारण से कोई भी असंख्य जीवी ईशान देवलोक से आगे नहीं जाता है। (१६२-१६३) यह गति द्वार है। (१३) एकाक्षा विकलाक्षाश्च तिर्यंचः संज्यसंज्ञिनः । संमूर्छिमेषु तिर्यक्ष्वायान्ति नो देव नारकाः ॥१६४॥ अब इनकी आगति के विषय में कहते हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और संज्ञी तथा असंज्ञी तिर्यंच संमूर्छिम तिर्यंच में आते हैं। देव अथवा नरक में नहीं आते। (१६४) एक द्वित्रि चतुरक्षाः पंचाक्षा संज्यसंज्ञिन । भवन व्यन्तर ज्योतिः सहस्रारान्त निर्जराः ॥१६॥ संमूर्छिमा गर्भजाश्च मनुष्याः सर्व नारकाः । गर्भोद्भवेषु तिर्यक्षु जायन्ते कर्मयन्त्रिताः ॥१६६॥(युग्मं।) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, संज्ञी- असंज्ञी पंचेन्द्रिय, भवनपति देव, व्यन्तर देव, ज्योतिषी देव, सहस्रारांत देव, संमूर्छिम तथा गर्भज मनुष्य और सारे नारकी - ये सब कर्म के नियंत्रण के कारण गर्भज तिर्यंच में आते हैं । (१६५-१६६) .. • अन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्ट मुत्पत्ति मरणान्तरम् ।। . सांमूर्जाना गर्भजानां द्वादशान्तर्मुहूर्त्तकाः ॥१६७॥ .. संमूर्छिम तिर्यंच की उत्पत्ति और मृत्यु के बीच का उत्कृष्ट अन्तर • अन्तर्मुहूर्त का है और गर्भज तिर्यंच का अन्तर बारह अन्तर्मुहूर्त का है। समय प्रमितं ज्ञेयं जघन्यं तद् द्वयोरपि । .... एक सामायिकी संख्या ज्ञेयैषां विकलाक्षवत् ॥१६८॥ . इति आगतिः ॥१४॥ इन दोनों के सम्बन्ध में जघन्य अन्तर एक समय का है और इनकी एक समय सम्बन्धी संख्या विकलेन्द्रिय प्रमाण है। (१६८) ये आगति द्वार है । (१४) लभन्तेऽनन्तर भवे सम्यक्त्वादि शिवावधि । . ते चैकस्मन् क्षणे मुक्तिं यान्तो यान्ति दशैव हि ॥१६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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