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________________ (६) वस्तुतस्तदसंख्येय प्रदेशमपि कल्प्यते । प्रदेशत्रय निष्पन्नं सुखावगतये नृणाम् ॥४६॥ १- सूर्यगुल - एक प्रदेश मोटी चौड़ी तथा एक अंगुल लम्बी - इस तरह 'आकाश प्रदेश की श्रेणि' को सूच्यंगुल कहते हैं । वास्तविक रूप में तो इसके असंख्य प्रदेश की कल्पना की है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति इसे सरलता से समझ सके इसलिए इसके तीन प्रदेश कहे हैं । (४८-४६) सूची सूच्यैव गुणिता भवति प्रतरांगुलम् । नव प्रादेशिकं कल्प्यं तदैर्ध्य व्यासयोः समम् ॥५०॥ २- प्रतरांगुल - सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने से प्रतरांगुल' होता है। इसके समान लम्बाई चौड़ाई वाले नौ प्रदेश कल्पना करने में आते हैं । (५०) प्रतरे सूची गुणिते सप्तविंशतिखांशकम् । दैर्ध्य विष्कम्भबाहल्यैः समानं स्याद् घनांगुलम् ॥५१॥ ३- धनांगुल - प्रतरांगुल को सूच्यंगुल द्वारा गुणा करने से 'घनांगुल' होता है। एक के बाद एक ऊपर तीन रखे जायें वह घनांगुल की स्थापना कहलाती है। इसके सत्ताईस प्रदेश हैं। इसकी लम्बाई, चौड़ाई, मौटाई एक समान ही होती है। (५१) तत्र गुणन विधिश्चैवम् अंकोऽन्तिमो गुण्यराशेर्गुण्यो गुणक राशिना । पुनरुत्सारितेनों पान्त्यादयोऽप्येवमेव च ॥५२॥ उपर्यधश्चादिमान्त्यौ राश्योर्गुणक गुण्ययोः । कपाट सन्धिवत्स्थाप्यौ विधिरेवमनेक धा ॥५३॥ स्थानाधिक्येन संस्थाप्यं गुणितेऽङ्के फलं च यत् । यथास्थान कर्मकांना कार्या संकलना ततः ॥५४॥ पूर्व में गुणाकार करने का कहा है, उस गुणाकार की विधि इस तरह है- जिस रकम- संख्या का गुणाकार करना हो उस रकम के अन्तिम अंक का जिस रकम से गुणा करना हो उसके अन्तिम अंक से गुणा करना, और इसी ही तरह पुनः पुनः उपान्त्य उपान्त्य अंक से गुणा करते जाना । गुणक और गुण्य की संख्या के पहले और अन्तिम अंक को दो दरवाजे की संधि के समान ऊपर नीचे रखना। अंक का गुणाकार करते जो 'फल' आता है उसे इससे अधिक-अधिक स्थान अनुसार से
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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