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________________ (४१६) इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना सूत्र में कहा है कि- "पर्याप्त की निश्रा में एक अपर्याप्त उत्पत्ति होती है अर्थात् जहां पर्याप्त एक हो वहां अपर्याप्त निश्चय अंसख्य होते हैं।" यह अल्पबहुत्व द्वार पूर्ण हुआ ॥३३॥ सर्वस्तोका दक्षिणस्यां भूकायादिगपेक्षया । उदक् प्राक्चततः प्रत्येक क्रमात्विशेषतोऽधिकाः ॥३३४॥ अब दिग् अपेक्षा से अल्प बहुत्व कहते हैं- दक्षिण दिशा में सर्व से कम पृथ्वीकाय जीव होते हैं । इससे अधिक-अधिक अनुक्रम से उत्तर दिशा में, फिर पूर्व दिशा में और फिर पश्चिम दिशा में होते हैं। (३३४) उपपत्तिश्चात्रयस्यां दिशि धनं तस्या बहवः क्षितिकायिकाः । यस्यां च शुषिरं तस्यां स्तोका एव भवन्त्यमी ॥३३५॥ दक्षिणस्यां च नरक निवासा भवनानि च । भूयांसि भवनेशानां प्राचुर्यं शुषिरस्य तत् ॥३३६॥ अल्पा उदिच्यां नरका भवनानीति तत्र ते । • घन प्राचुर्य तोऽनल्पाः स्युर्याम्यदिगपेक्षया ॥३३७॥ . इसका कारण इस तरह है- जिन दिशाओं में घन हों वहां पृथ्वीकाय के जीव बहुत होते हैं और जहां खाली स्थान हो वहां वह थोड़ा होता है और दक्षिण दिशा में नरकावास और भवनपति के भवन बहुत होने से वहां खाली स्थान बहुत है; उत्तर दिशा में नरकावास एवं भवन थोड़े हैं इसलिए दक्षिण दिशा की अपेक्षा विशेष घनत्व- मोटापन होने से पृथ्वीकाय जीव बहुत होते हैं। (३३५ से ३३६) प्राच्यां रवि शशिद्वीप सद्भावत् घनमूरिता । उत्तरापेक्षया तत्र बहवः क्षितिकायिकाः ॥३३८॥ तथा पूर्व दिशा में सूर्य द्वीप और चन्द्र द्वीप आने के कारण वहां उत्तर दिशा से विशेष घनता-मोटापन है, इसलिए वहां इससे भी अधिक विशेष रूप में पृथ्वीकाय के जीव होते हैं। (३३८) प्राक् प्रत्तीच्योः रवि शशिद्वीप साम्येऽपि गौतमः । द्वीपोऽधिकः प्रतीच्यांस्यात्ततस्तेऽत्राधिकाः स्मृताः ॥३३६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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