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________________ (४१६) गुण स्थान इनको प्रथम ही होता है, इस तरह सिद्धान्त मत के अनुसार है, जबकि कर्म ग्रंथ के मतानुसार पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय को पहले दो गुण स्थान होते हैं। (३१५) स्युस्तथा स्थूल मरुतां योगाः पंच यतोऽधिकौ । । एषां वैक्रिय तन्मिश्रौ त्रयोऽन्येषां च पूर्ववत् ॥३१६॥ . एवं द्वाराणि ॥१६-३१॥ . . बादर वायुकाय के योग पांच होते हैं क्योंकि इसे वैक्रिय और मिश्रवैक्रियये दो योग अधिक होते हैं। अन्य को पूर्व के समान तीन योग होते हैं। (३१६) इस तरह १६ से ३१ तक के तेरह द्वार के विषय कहे हैं। अंगुलासंख्यांश माना यावन्तोंशा भवन्ति हि। .. . एकस्मिन् प्रतरे सूचीरूपा लोके घनीकृते ॥३१७॥ तावन्तः पर्याप्ता निगोद प्रत्येक तरु धराश्चापः । स्युः किंचिन्यूनावधिघन समयमितास्त्वनलं जीवाः ॥३१८॥ युग्मं। अब मान-प्रमाण के विषय में बत्तीसवां द्वार कहते हैं। घनीभूत लोकाकाश में एक प्रतर के अन्दर सूचीरूप अंगुल के असंख्यवें भाग प्रमाण जितना अंश होता है उतना पर्याप्त निगोद प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी और,अप्काय के जीव होते हैं और कुछ कम आवलि के सदृश घन समय हो उतने अग्निकाय के जीव होते हैं। (३१७-३१८) अत्र च..... यद्यपि पूर्वार्धोक्तक्ताश्चत्वारस्तुल्य मानका प्रोक्ताः। तदपि..... यथोत्तरमधिकाः प्रत्येतत्या असंख्य गुणाः ॥३१६॥ उक्तोऽगुलासंख्यभागो यः सूचीखण्ड कल्पने। तस्यासंख्येय भेदत्वात् घटते सर्वमप्यदः ॥३२०॥ और यहां आधे श्लोक में चार पर्याप्त कहे हैं उनको तुल्यमान वाले कहे हैं, फिर उनको उत्तरोत्तर असंख्य असंख्य गुणा समझना। सूचि खंड की कल्पना करने में अंगुल का जो असंख्यवां भाग कहा है, इसका भेद असंख्य होने से यह सब घट सकता है। (३१६-३२०) घनीकृतस्य लोकस्यासंख्येय भाग वर्तिषु ।। . असंख्य प्रतरेषु स्युः यावन्तोऽभ्रप्रदेशकाः ॥३२१॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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