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________________ (४१५) पृथ्व्यम्बु प्रत्येक तरुष्वाद्यलेश्या चतुष्टयम् । आद्यं लेश्यात्रयं साधारणद्रुमाग्नि वायुषु ॥३११॥ चतुर्थलेश्या सम्भवस्तु एवम् अब लेश्या के विषय में कहते हैं- पृथ्वीकाय के जीव, अप्काय के जीव तथा प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों को प्रथम चार लेश्या होती हैं और अग्निकाय, वायुकाय तथा साधारण वनस्पतिकाय के जीवों को प्रथम तीन लेश्या होती हैं। (३११) यहां कईयों ने चार लेश्या कहीं हैं, तो इसमें चौथी लेश्या का संभव है। वह इस तरह समझना - तेजोलेश्यावतां येषु नाकिनां गतिसंभवः । आद्यमन्तर्मुहूर्तं स्यात्तेजोलेश्यापि तेषु वै ॥३१२॥ इति लेश्या ॥१७॥ तेजोलेश्या- जिन देवों की गति का संभव होता है उनको पहले अन्तर्मुहूर्त . तक तेजोलेश्या भी होती है। (३१२) .. . यह लेश्या द्वार है। (१७). . एषां स्थूलक्षमादीनामाहारः षड्दिगुद्भः । . स्थूलानिलस्य त्रिचतुः पंचदिक् संभवोऽप्यसौ ॥३१३॥ . .. इति आहारदिक् ॥१८॥ . अब आहार के सम्बन्ध में कहते हैं- बादर पृथ्वीकाय आदि को छ: दिशाओं का आहार होता है और बादर वायुकाय का तो तीन, चार अथवा पांच दिशा का भी आहार होता है। (३१३) .. . यह आहार द्वार है। (१८) ____ एकोनविंशति तमादीन्येकादश सूक्ष्मवत् । द्वाराणि स्थूल पृथ्व्यादि जीवानां जगुरीश्वराः ॥३१४॥ इस तरह उन्नीसवें से उन्तीसवें तक के ग्याहर द्वार सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि के द्वार के समान समझ लेना। (३१४) आद्यं गुण स्थानमेषु मतं सिद्धान्तिना मते । कर्मग्रंथ मते त्वाद्यं तद्वयं भूजलद्रुषु ॥३१५॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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