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________________ (४०६) अब इस सम्बन्ध में विशेष रूप में कहते हैं- निगोद के जीव, वायुकाय, तेउकाय, अप्काय और पृथ्वीकाय- इन ये पांचों के १-सूक्ष्म और २- बादर, इस तरह दो भेद होते हैं और इनके फिर १- पर्याप्त और २- अपर्याप्त, इस तरह दो उपभेद हैं । इस प्रकार होने से ५४२४२ = २० बीस भेद होते हैं । इन बीस के जघन्य और उत्कृष्ट भेद करने से २०४२ = ४० चालीस भेद होते हैं। (२७८-२७६) पर्याप्तापर्याप्त हीनोत्कृष्ट भूघन भेदतः । . . चतुधैवं चतुश्चत्वारिंशदेकेन्द्रियांगिन ॥२०॥ और प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्त और अपर्याप्त- इस तरह दो भेद हैं और दोनों जघन्य तथा उत्कष्ट होने से चार प्रकार के होते हैं । वे इन चालीस में मिलाने से चौवालीस(४४) एकेन्द्रिय प्राणियों के भेद होते हैं। (२८०) . अथावगाहनास्वेषां तारतम्यमितीरितम् । ... पंचमांगैकोन विंशशतोद्देशे तृतीययके ॥२८१॥ अब इनकी अवगाहना के सम्बन्ध में तारतम्य है । वह पांचवें अंग के उन्नीसवें शतक में तीसरे उद्देश में कहा है । वह इस प्रकार है। (२८१) अपर्याप्त निगोदस्य स्यात्सूक्ष्मस्यावगाहना । सर्व स्तोका ततोऽष्टानाम संख्येय गुणाः क्रमात् ॥२८२॥ अपर्याप्तानिलाग्न्यम्बु भुवां सूक्ष्मगरीयसां । ततोऽपर्याप्तयोः स्थूलानन्त प्रत्येक भूरुहोः ॥२३॥ असंख्येय गुणे तुल्ये मिथोऽवगाहने लघू । ततः सूक्ष्मनिगोदस्य पर्याप्तस्यावगाहना ॥२८४॥ असंख्येय गुणा लघ्वी क्रमात्ततोऽधिकाधिके । . अपर्याप्त पर्याप्तस्योत्कृष्टे तस्यावगाहने ॥२८५॥ कलापकम् । सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद की अवगाहना (१) सब से कम है तथा उससे और सूक्ष्म तथा बादर अपर्याप्त वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीकाय की जघन्य अवगाहना (८) अनुक्रम से असंख्य- असंख्य गुनी है और इससे असंख्य गुनी और परस्पर तुल्य अपर्याप्त बादर अनन्तकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय की (२) है तथा इससे असंख्य गुना पर्याप्त सूक्ष्म निगोद की जघन्य अवगाहना (१) है और इस तरह करते अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना (२) अधिक से अधिक समझना। (२८२ से २८५)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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