SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४०२) जघन्यादुत्कर्षतश्च वायोर्यद्वैकि यं वपुः ।। स्यात्तदप्यंगुलासंख्य भागमात्रावगाहनम् ॥२५॥ वायुकाय का वैक्रिय शरीर भी पृथ्वीकाय आदि के समान जघन्य तथा उत्कृष्ट से एक अंगुल के असंख्यवें भाग जितना है। (२५५) . अंगुलासंख्यांश मानं प्रत्येक द्रोर्जघन्यतः । उत्कर्षतो योजनानां सहस्र साधिकं वपुः ॥२५६॥ उत्सेधांगुल निष्पन्न सहस्रयोजनोन्मिते ।। जलाशये यथोक्तांगाः स्युर्लताकमलादयः ॥२५७॥ इसी तरह प्रत्येक वनस्पतिकाय का शरीर भी जघन्यतः एक अंगुल के असंख्यवें भाग के समान है परन्तु उत्कृष्ट से हजार योजन से कुछ अधिक होता है क्योंकि उत्सेधांगुल के माप से सहस्र योजन गहरे जलाशय में यह कहा है, इतने अंगमान वाले कमल और लता आदि होती हैं। (२५६-२५७) प्रमाणांगुल मानेषु यानि वार्धिह्न दादिषु । भौमान्ये वाब्जानि तानि विरोधः स्यान्मिथोऽन्यथा ॥२५८॥ तद्यथा - उद्वेधः क्व समुद्राणां प्रमाणां जो महान् । क्व लघून्यब्जनालानि मितान्यौत्सेधितांगुलैः ॥२५६॥ प्रमाण अंगुल के मान-माप वाले समुद्र और द्रह आदि होते हैं, उनमें कमल भौम पृथ्वीकाय है क्योंकि इस तरह न हो तो परस्पर विरोध आता है । क्योंकि प्रमाण अंगुल निष्पन्न समुद्र की महान् गहाई कहा और उत्सेधांगुल से निष्पन्न लघुता वाले को कमलनाल कहा है ? अर्थात् इन दोनों के बीच में महान् अन्तर है। (२५८-२५६) किं च -- शाल्यादि धान्य जातीनां स्यान्मूलादिषु सप्तसु। धनुः पृथक्त्व प्रमिता गरीयस्यवगाहना ॥२६०॥ उत्कृष्टैषां बीज पुष्य फलेषु त्ववगाहना । पृथक्त्वमंगुलानां यत प्रोक्तं पूर्व महर्षिभिः ॥२६१॥ तथा शाल आदि जाति वाले अनाज के मूल आदि जो सात भेद हैं उनकी अवगाहना अर्थात् देहमान पृथकत्व धनुष्य प्रमाण होता है और उनके बीज, पुष्प और फल की अवगाहना पृथकत्व अंगुल प्रमाण होता है, ऐसा पूर्व महा ऋषियों ने कहा है। (२६०-२६१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy