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(३६५) अब पर्याप्ति के विषय में कहते हैं- उन बादर एकेन्द्रियों की पर्याप्ति तीन अथवा चार,होती हैं, अपर्याप्त को तीन और पर्याप्त को तीन और उसके प्राण चार - कायबल, श्वासोश्वास, आयुष्य और स्पर्शेन्द्रिय हैं। (२१३)
इति पर्याप्ति (३) - पृथ्व्यम्बुवह्निमरुतां प्रत्येकं परिकीर्तिताः ।
योनि लक्षाः सप्त सप्त सप्त सप्तिसम प्रभैः ॥२१४॥ योनीनां दश लक्षाणि स्युः प्रत्येक महीरुहाम् । साधारण तरूणां च योनि लक्षाश्चतुर्दश ॥२१५॥
योनि संख्या के विषय में कहते हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय- इन प्रत्येक की सात-सात लाख योनि होती हैं और प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस लाख और साधारण वनस्पतिकाय की चौदह लाख योनि शास्त्र में कही हैं । (२१४-२१५)
इस तरह योनि विषय कहा है। (४) द्वादश सप्त त्रीणि च सप्ताष्टाविंशतिश्च लक्षाणि । कुल कोटीनां पृथ्वीजलाग्न्यनिल भूरुहां क्रमतः ॥२१६॥
एवं च सप्तपंचाशल्लक्षाणि कुल कोटयः । - एकेन्द्रियाणां जीवानां संग्रहण्यनुसारतः ॥२१७॥
अब उनकी कुल संख्या कहते हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय- इन पांचों की कुल कोटि अनुक्रम से बारह लाख, सात लाख, तीन लाख, सात लाख और अठाईस लाख होती हैं । इस तरह कुल मिलाकर सत्तावन लाख कुल.कोटि संग्रहणी ग्रन्थ में एकेन्द्रिय जीवों की कही हैं। (२१६-२१७)
आचारांग वृत्तौ तुकुल कोडि सयस हस्सा बत्तीसदृट्ठन व य पणवीसा । एगिदिय बिति इन्दिय चउरिदिय हरिय कायाणम् ॥२१८॥ अद्धत्तेरस बारसदसदसनव चेव कोडि लख्खाईं। जलयरपख्खि चउ पयउरभुअपरिसप्प जीवाणं ॥२१६॥ पणवीसां छव्वीसं च सय सहस्साई नारय सुराणं । वारस य सयसहस्सा कुल कोडीणं मणुस्साणं ॥२२०॥