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________________ (३८६) तरह करते हैं- यहां तेजस्काय में जो तेजस का अर्थ 'परमाधार्मिक कृत अग्नि सदृश वस्तु, अर्थात् 'तेजस्काय का स्पर्श' कहा है, उसका अर्थ इस तरह है किपरमाधार्मिक द्वारा उत्पन्न अग्नि समान वस्तु का स्पर्श- जो तेजस्काय का ही मानो स्पर्श होता है, वैसा लगता है। अतः साक्षात् तेजस्काय का स्पर्श करता है- इस तरह हमारा कहना नहीं है अथवा 'किसी अन्य जन्म में अनुभव किये तेजस्कायिक के पर्यायों के समान पृथ्वीकायिक का स्पर्श होना' इस तरह समझना। स्वर्गा दौधूप घटयादि श्रुयते यत्किलागमे । तत्तुल्याः पुद्गलास्तेऽपि कृत्रिमा कृत्रिमात्मकाः ॥१८३॥ एतच्च अर्थतः प्रायः तृतीय तुर्योपांगयोरेव।। स्वर्ग आदि में धूप घटा- आदि होने का जो आगम में कहा गया है वह भी इस तेजस्काय सदृश कृत्रिम तथा अकृत्रिम पुद्गल है। (१८३) यही भावार्थ तीसरे और चौथे उपांग में ही कहा हैं। ग्रन्थान्तरेऽपिपंचिदियएगिदिय उढे य अहे य तिरियलोए य । विगलिंदिय जीवा पुणतिरिय लोए मुणेयव्वा ॥१८४॥ . पुढवी आयु वणस्सह वारस कण्पे सुसप्त पुढवीसु । .पृथ्वी जा सिद्धि सिला तेउ नर खित्तति रि लोए ॥१८५॥ सुरलोअवापि मज्झे मच्छाइ नन्थि जलयरा जीवा । गेविजे न हु वावी वाविअभावे जलं नत्थि ॥१८६॥ इति अग्निकाय स्थानम् ॥ अन्य ग्रन्थ में भी कहा है कि- पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीव ऊर्ध्व, अधो. और तिर्यग् लोक में होते हैं परन्तु विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, तेन्द्रिय और चौइन्द्रिय वाले तो तिर्यग् लोक में ही समझना। पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय बारह देवलोक में तथा सात पृथ्वियों में होती हैं। इसमें यह पृथ्वीकाय सिद्ध शिला तक होती है और तेउकाय अर्थात् तेजस्काय-अग्निकाय तिर्यग्लोक के अन्दर मनुष्य क्षेत्र में होती है, तथा देवलोक की बावडी में मछली आदि जलचर जीव नहीं होते, ग्रैवेयक में वाव नहीं होती और वाव के अभाव में . जल भी नहीं होता । (१८४-१८६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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