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________________ (३८७) अधोलोक में, पाताल कलश के अन्दर, असुर आदि के भवनों में और नारकों के स्थान में, ऊर्ध्वलोक में विमानों के अन्दर तथा विमानों के प्रस्तरों में, तिर्यग्लोक में कूट पर्वतों में, प्राग्भार विजय आदि में, वक्षस्कार पर्वतों में, वर्ष शैल जगती के कोट-वेदिका आदि द्वार-द्वीप और समुद्रों में, स्वस्थानत पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति होती है। (१७० से १७३) स्वस्थानतोऽम्बुकायानां स्थानान्युक्तानि सूरिभिः । घनोदधि वलयेषु घनोदधिषु सप्तसु ॥१७४॥ अधः पाताल कुम्भेषु भवनेष्वासुरेषु च । ऊर्ध्वलोके विमानेषु स्वर्ग पुष्करणीषु च ॥१७॥ तिर्यग्लोके च कूपेषु नदीनद सरस्सु च । निर्झरोग्झर वापीषु गर्ताके दार पंक्तिषु ॥१७६॥ जलाशयेषु सर्वेषु शाश्वताशाश्वतेषु च । द्वीपेषु च समुद्रेषु बादराप्काय सम्भवः ॥१७७॥ कलापकम्। ___ इति अप्काय स्थानानि ॥ : अब बादर अप्काय जीवों के.स्थान के विषय में कहते हैं- स्वस्थानतः अप (पानी) काय के स्थान आचार्य कहते हैं- घनोदधि के वलय में सात घनोदधि में होता है, अधः लोक के अन्दर, पाताल कलशों में तथा असुरों के भवनों में, उर्ध्वलोक के अन्दर विमानों में, तथा स्वर्ग की पुष्करणियों में तथा तिर्यक लोक के अन्दर-कुओं में, नदी- नद और तलाबों में, झरने वाली वावों में, खाई तथा क्यारियों की हारों में तथा शाश्वत- अशाश्वत सर्व जलाशयों में तथा द्वीप और समुद्रों में स्वस्थानतः बादर अप्काय संभव होता है। (१७४ से १७७) स्वस्थानतोऽग्नि कायानां स्थानमाहुर्जिनेश्वराः । - नरक्षेत्रं द्विपाथोधि सार्ध द्वीपद्वयात्मकम् ॥१७॥ तथापि......काले युगलि नामग्निः काले च विलवासिनाम् । विदेहे प्वेव सर्वासु कर्मभूषु ततोऽन्यदा ॥१७६॥ बादर अग्निकाय जीव के स्थान विषय में श्री जिनेश्वर भगवंत ने कहा हैस्वं स्थान से अग्निकाय का स्थान दो समुद्र और अढाई द्वीपात्मक मनुष्य क्षेत्र है । उसमें भी युगलियों को तथा विलवासी को अमुक काल में अग्नि होती है,
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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