________________
(३५८)
वैडूर्य जलकान्तश्च रूचकार्कोपलाविति ।
खरक्ष्माया एव भेदानन्यान् द्वाविंशतिं बुवे ॥११॥
मणि के अठारह भेद इस तरह हैं - १- गोमेध, २- कांक, ३- स्फटिक, ४लोहिताक्ष, ५- नीलम,६- मसार गल्ल, ७- भुजमोचक,८- इन्द्रनील,६- चन्दन, १०- गैरिक (गेरू), ११- हंसगर्भ, १२- सौगन्धिक, १३- पुलक, १४- चन्द्रप्रभ, १५- वैडूर्य, १६- जलकान्त, १७- रूचक और १८- सूर्य कान्त मणि । (६ से ११)
भर्नदीतटमित्त्यादेः शर्करोपलकर्कराः ।। सिकताः सूक्ष्म कणिकाः उपला लघवोऽश्मकाः ॥१२॥ शिला महान्तः क्षाराभूरूषो लवणमब्धिजम् । सुवर्ण रूप्यताम्रयस्त्र पुसीसक घातवः ॥१३॥ वजं च हरितालश्च हिंगुलश्च मनःशिला । . प्रवालं पारदश्चापि सौवीराभिधमंजनम् ॥१४॥ पटलं पुनरभ्राणां तथा तन्मिभ वालुकाः ।
अन्येऽप्येवंविधा ग्राह्या जेया वणेति वाक्यतः ॥१५॥ . इत्यर्थतः प्रज्ञापना वृत्तौ ॥ इति पृथ्वी काय भेदः ॥ . दूसरे बाईस भेद इस प्रकार हैं - १- नदी किनारे की दिवाल की मिट्टी, २- मिट्टी की रेत, ३- सूक्ष्म कणी रूप सिकता-रेती, ४- छोटे-छोटे पत्थर समूह उपल,५- बड़ी शिला,६-खारी जमीन,७- समुद्र का नमक,८-सुवर्ण,६-रूपाचान्दी, १०- तांबा, ११- लोहा, १२- जस्ता, १३- सीसा, १४- वज्र, १५- हरताल, १६- हिगुल, १७- मनः शील, १८- प्रवाल, १६- पारद, २०- सौवीर नाम का अंजन-सुरमा, २१- अभ्रक का पड-समुदाय और २२- अभ्रक मिश्रित रेती। तथा प्रज्ञापना सूत्र में 'जेयावण्णा' ऐसा वाक्य आया है । इससे अन्य भी भेद समझना। (१२ से १५)
इस प्रकार बादर एकेन्द्रिय पृथ्वीकाय के भेद कहे हैं। जलभेदा जलं शुद्धं शीतमुष्णं स्वभावतः । क्षारमीषदतिक्षारमम्लमीषत्तथाधिकम् ॥१६॥ हिमावश्यायकरका धूमरीक्ष्मान्तरिक्षजम् । क्ष्यामुद्भिद्य तृणाग्रस्थं नामा हरतनूदकम् ॥१७॥