SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३५३ ) इस तरह तैंतीसवां द्वारा अल्प बहुत्व है। दिशामपेक्षयात्वल्प बहुतैषां न सम्भवेत् । अमी प्रायः सर्वलोकापन्नाः सर्वत्र यत्समाः ॥ १४६ ॥ दिशा से अल्पबहुत्व सम्बन्ध में कहते हैं - दिशाओं की अपेक्षा से सूक्ष्म जीवों का अल्प बहुत्व संभव नहीं है क्योंकि यह प्रायः सर्वलोक में व्याप्त हैं और सर्वत्र समान है । (१४६) तथोक्तं प्रज्ञापना वृत्तौ - " इदं हि अल्प बहुत्वं बादरानधिकृत्य दृष्टव्यं न सूक्ष्मान् । सूक्ष्माणां सर्वलोकापन्नानां प्रायः सर्वत्र समत्वात् ॥" इति दिगपेक्षया अल्प बहुता ॥३४॥ प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में कहा है कि- यह अल्प बहुत्व बादर जीवों की अपेक्षा से जानना, सूक्ष्म की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि सूक्ष्म सर्वलोक में व्याप्त हैं और सर्वत्र समान है। इस तरह से चौंतीसवां द्वार है। ओघतः सूक्ष्म जीवानामन्तरं यदि चिन्त्यते । अन्तर्मुहूर्त्त सूक्ष्मत्वे जघन्यं कथितं जिनैः ॥ १५० ॥ यदुत्पद्य बादरेषु सूक्ष्मः संत्यज्य सूक्ष्मताम् । स्थित्वा तत्रान्तर्मुहूर्त्त पुनः सूक्ष्मत्वमाप्नुयात् ॥१५१॥ सूक्ष्म जीवों का अन्तर यदि ओघ से विचार करें तो वह जन्घयतः अन्तर्मुहूर्त्त है क्योंकि वह सूक्ष्म अपना सूक्ष्मत्व छोड़कर बादर रूप में उत्पन्न होकर उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर पुन: सूक्ष्मत्व प्राप्त करता है । (१५०-१५१) उत्कर्षतः कालचक्राण्यसंख्येयानि तानि च । निष्पाद्यान्यंगुलासंख्यांशस्य खांशमितैः क्षणैः ॥१५२॥ परन्तु उत्कृष्ट अन्तर तो एक अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितना अकाश प्रदेश रहता है उतने क्षणें से बने असंख्य काल चक्र का होता है । (१५२) अयं भाव..... एकस्मिन्नंगुलासंख्य भागे येऽभ्रप्रदेशकाः । यावन्ति काल चक्राणि हृतैस्तैः स्युः प्रतिक्षणम् ॥१५३॥ उत्कर्षतो बादरत्वे तावती वर्णिता स्थितिः । तां समाप्य पुनः सौक्ष्म्य प्राप्तौ युक्तमदोऽन्तरम् ॥१५४॥ युग्मं ।
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy