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________________ (३५२) और जोकि सारे लोक प्रमाण असंख्य आकाश खण्ड के प्रदेश समान हैं फिर भी उनको उत्तरोत्तर अधिक- अधिक समझना । (१४३) असंख्येय गुणाः सूक्ष्मवायुभ्यः स्युर्निगोदकाः । असंख्येय प्रमाणत्वादेतेषां प्रति गोलकम् ॥१४॥ तेभ्योऽनन्त गुणाः सूक्ष्माः स्युर्वनस्पतिकायिकाः। . तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा विशेषाभ्यधिकाः समृता ॥४५॥.. तथा सूक्ष्म वायु काय के जीव से निगोद के जीव असंख्य गुणा हैं क्योंकि वे गोलाकार असंख्य प्रमाण में हैं। और इससे भी अनन्त गुणा सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव हैं और इससे भी सामान्यतः सारे सूक्ष्म अधिक विशेष हैं। (१४४-१४५) स्वस्वजातिष्वपर्याप्तकेभ्योऽसंख्यगुणा मताः । पर्याप्तकायदेतेऽन्यापेक्षयाधिक जीविनः ॥१४६॥.. अपनी-अपनी जाति में पर्याप्त जीव अपर्याप्त से असंख्य गुणा होते हैं क्योंकि : वे अन्य की अपेक्षा से अधिक आयुष्य वाले होते हैं। (१४६) उत्पद्यन्ते तथैके कापर्याप्तकस्य निश्रया । पर्याप्तका असंख्येयास्ततोऽमी बहवो मताः ॥१४७॥ . एक-एक पर्याप्त की निश्रा से असंख्य पर्याप्त उत्पन्न होते हैं, इससे वे बहुत हैं। इस तरह कहा है। (१४७) तथोक्तमाचारांग वृत्ती- "सूक्ष्मा अपि पर्याप्तकापर्याप्त भेदेनद्विधा एव। किन्तु अपर्याप्तकनिश्रया पर्याप्तकाः समुत्पद्यन्ते। यत्र च एकः अपर्याप्तकः तत्र नियमात् असंख्येयाः पर्याप्ताः स्युः । इति॥". इस सम्बन्ध में आचारांग सूत्र की वृत्ति में इस प्रकार से कहा है कि 'सूक्ष्म भी दो प्रकार का कहा है १- पर्याप्त और २- अपर्याप्त। परन्तु अपर्याप्त की निश्रा से पर्याप्त उत्पन्न होता है। जहां एक अपर्याप्त होता हो नियमतः असंख्य पर्याप्त होते हैं।' अतः एवैकेन्द्रियाः स्युः सामान्यतो विवक्षिताः । पर्याप्ता एव भूयांसो जीवा अप्योघतस्तथा ॥१४८॥ इति लघ्वी अल्पबहुता ॥३३॥ इसलिए ही सामान्यतः एकेन्द्रिय की विवक्षा की है और ओध से भी बहुत जीव पर्याप्त कहे हैं। (१४८)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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