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________________ (३४८) अब उन्नीसवां द्वार संहनन है । यह सूक्ष्म जीवों का है, अर्थात् इनको अस्थि नहीं होती अर्थात् संहनन भी संभव नहीं है। कईयों के मतानुसार इसे 'सेवात' अन्तिम संघयण कहा है। (१२३) यह उन्नीसवां 'संहनन' द्वार कहा। सर्व कषायाः संज्ञास्तु स्युश्चतस्त्रोऽथवा दश । इन्द्रियं चैकमाख्यातमेतेषां स्पर्शनेन्द्रियम् ॥१२४॥ इति द्वार त्रयम् ॥२० से २२॥ इन सूक्ष्म जीवों के कषाय सब होते हैं, संज्ञा चार अथवा दस होती हैं और इन्द्रिय एक ही होती है- वह स्पर्शेन्द्रिय होती है। (१२४) इस तरह तीन द्वार २०-२१-२२ साथ आए हैं। ... भूत भावि भवद् भावस्वभावा लोचनात्मिका । संज्ञा नैकेन्द्रियाणां स्यात्तदेतेऽसंज्ञिनः स्मृताः ॥१२५॥ इति संज्ञिता ॥२३॥ इन सूक्ष्म जीवों के भूत, भावि और भविष्य पदार्थों के स्वभाव की आलोचना रूप संज्ञा नहीं होती, इसलिए वे असंज्ञी कहलाते हैं। (१२२) यह तेइसवां द्वार है। अमी जिनेश्वरैः क्लीब वेदा एव प्रकीर्तिताः । वेदस्त्वव्यक्तरूपः स्यादेषां संज्ञा कषायवत् ॥१२६॥ इति वेद ॥२४॥ इन जीवों को जिनेश्वर भगवन्त ने नपुंसक वेद ही कहा है, संज्ञा और कषाय के समान इनका वेद अप्रगट है। (१२६) यह चौबीसवां द्वार है। संक्लिष्ट परिणामत्वात्सर्वै केन्द्रियदेहिनाम् । मिथ्यादृष्टय एवामी निर्दिष्टा : परमेष्टिभिः ॥१२७॥ इति दृष्टि ॥२५॥ सर्व एकेन्द्रिय जीवों के परिणाम संक्लिष्ट होते हैं इसलिए ये सब मिथ्यादृष्टि होते हैं । (१२७) यह पच्चीसवां द्वार है।
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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