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________________ (३४७) इन निगोद के जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु लगातार हुआ करती है। इसमें जरा भी विरह ही नहीं है क्योंकि वे निरन्तर प्रत्येक समय में असंख्य भागरूप अनंत प्रमाण में उत्पन्न होते हैं और मृत्यु प्राप्त करते हैं। (११६) इस तरह चौदहवां द्वार 'आगति' विषय कहा। 'अनन्तराप्तिः समये सिद्धिर्बादरवद् बुधैः । ज्ञेयैषां प्राच्य शास्त्रेषु विभागे ना विवक्षणात् १२०॥ । इति द्वार द्वयम् ॥१५-१६॥ इस सूक्ष्म जीवों का पंद्रहवां द्वार 'अनन्तराप्ति' और सोलहवां द्वार 'समयेसिद्धि'- ये दोनों बादर जीवों के समान ही समझ लेना। प्राचीन शास्त्रों में इनका अलग विभाग नहीं कहा है। (१२०) इस प्रकार पन्द्रहवां और सोलहवां-दो द्वारों के विषय में कहा । कृष्णा नीला च कापोती लेश्या त्रयमिदं भवेत् । सर्वेषां सूक्ष्म जीवानामित्युक्तं सूक्ष्यमदर्शिभिः ॥१२१॥ । इति लेश्याः ॥७॥ __ सत्तरहवां द्वारा लेश्या है । सूक्ष्म जीवों की लेश्या तीन कही हैं अर्थात् इनको तीन ही लेश्या होती है- कृष्ण, नील और क़ापोत। (१२१) ... यह सत्रहवां द्वार कहा। . . नियाघातं प्रतीत्यैषामाहारः षड्दिगुद्भवः । भवेद्वयाघातमाश्रित्य त्रिचतुष्पंचदिग्भवः ॥१२२॥ .. .. इति आहार दिक् ॥१८॥ अब अठारहवां द्वार 'दिगाहार' है । इन जीवों को निर्व्याघात की अपेक्षा से छः दिशाओं का आहार होता है और व्याघात की अपेक्षा से तीन, चार और पांच दिशा का होता है। (१२२) यह अठारहवां दिशाहार' द्वार कहा। न संहननमेतेषां सम्भवत्यस्थ्यभावतः । मनान्तररेण चैतेषां सेवार्त तदुरीकृतम् ॥१२३॥ . . . इति संहननानि ॥६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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