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________________ (३४५) जिसकी चार गति का स्वरूप इस तरह संक्षेप में समझाया है ऐसे सूक्ष्म जीवों को दो गति और दो आगति होती हैं। (१०६) तेजोऽनिलो तु, नृभवे नोत्पद्यते स्वभावतः । ततस्त एकगतयः प्रोक्ता द्वयगतयोऽपि च ॥१०७॥ तेउकाय और वायुकाय स्वभाविक रूप में ही मनुष्य में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए उनकी गति एक और आगति दो कही हैं। (१०७) सूक्ष्मेषु पृथ्वी सलिल तेजोऽनिलेषु जन्तवः । . उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च असंख्येया निरन्तरम् ॥१०८॥ और सूक्ष्म पृथ्वी, अप, तेज और वायु काय में असंख्य जीव हमेशा उत्पन्न होते हैं और च्यवन (मरते) होते हैं। (१०८) . वनस्पतौ त्वनन्ता नामुत्पत्ति विलयौ सदा । स्व स्थानतः पर स्थानात्त्व संख्यानां गमागमौ ॥१०६॥ वनस्पति के विषय में तो सदा स्वस्थान की अपेक्षा से अनन्त जीवों की उत्पत्ति और विलय हुआ करता है और पर स्थान की अपेक्षा से असंख्य जीवों का गमनागमन हुआ करता है। (१०६) .. एकस्यापि निगोदस्या संख्यांशोऽनन्त जीवकः । जायते म्रियते शश्वत् किं पुनः सर्वमीलने ॥११०॥ . अकेले एक निगोद के अनन्त जीव वाले असंख्यवें भाग शाश्वत् उत्पन्न होते है और विलय होते है । जब सब निगोद एकत्रित हो जाये तो फिर क्या बात करना ? (११०) तथाहि ..... विवक्षित निगोदस्य विवक्षित क्षणे तथा। असंख्येयतमो भाग एक उद्धर्त्तते ध्रुवम् ॥१११॥ उत्पद्यतेऽन्यस्तथैव द्वितीय समयेऽपि हि । एक उद्वर्त्तते संख्यभाग उत्पद्यतेऽपरः ॥११२॥ वह इस तरह से-अमुक क्षण में अमुक निगोद का एक असंख्यवां भाग विनष्ट होता है और एक असंख्यवां भाव उत्पन्न होता है । इसी तरह अन्य क्षण में भी एक असख्यवां भाग विनष्ट होता है और अन्य उत्पन्न होते हैं। (१११-११२)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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