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________________ (३२६) .. पर्याप्तापर्याप्तकैच स्थावरै स्त्रिविधै स्त्रसैः । वेद भेदात् भवन्त्येवं त्रयोदश विधाः किल ॥१२॥ • इसी प्रकार जीव के तेरह भेद भी होते हैं- पांच स्थावर पर्याप्त, पांच स्थावर अपर्याप्त तथा पुरुष, स्त्री और नपुंसक- ये तीन जाति के त्रस। (१२) प्रागुक्ताः सप्तधा पर्याप्तकापर्याप्त भेदतः । चतुर्दश विधा जीवाः स्युः पंचदशधाप्यमी ॥१३॥ और जीव के चौदह भेद भी हो सकते हैं । वह इस प्रकार-पूर्व के सातवें श्लोक में सात भेद कहे हैं, वे सात पर्याप्त और सात अपर्याप्त इन दोनों को मिलाकर ७+७ = १४ चौदह होते हैं। (१३) पंचाक्षानरतिर्यंचस्त्रिविधा वेद भेदतः । देवा द्विधा नारक श्चेत्येवं पंचेन्द्रिया नव ॥१४॥ द्विविधा बादरै काक्षाः पर्याप्तापर भेदतः । सूक्ष्मैकाक्षा विकलाक्षाः स्यु पंचदश संयुक्ता ॥१५॥ युग्मं । .... इसी तरह इसके पंद्रह भेद होते हैं और वह इस प्रकार-पुरुष स्त्री व नपुंसक ये तीन वेद के पंचेन्द्रिय मनुष्य तथा इसी तरह तीन वेद के पंचेन्द्रिय तिर्यंच, और .पुरुष, स्त्री दो वेद देव, नपुंसक वेदी नारकी, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्टिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा तीन विकलेन्द्रिय मिलकर कुल पंद्रह होते हैं। (१४-१५) तिर्यंच: पंचधैकाक्षादिकाः पंचाक्ष सीमकाः । . नदेव नारकाचाष्टाप्येते पर्याप्तकापराः ॥१६॥ इति षोडश भेदाः। तथा जीव के सोलह भेद भी कहलाते हैं । वह इस तरह- एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के पांच प्रकार के तिर्यंच तथा मनुष्य, देव और नारकी- ये तीन अर्थात् कुल आठ प्रकार होते हैं ये आठ पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों होते हैं । इससे ८x२ = १६ सोलह होते हैं। (१६) प्रागुक्ता नवधा पंचेन्द्रियाश्च पंचे धैकरवाः । त्रिविधा विकला एवं स्युः सप्तदशधांगिनः ॥१७॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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