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तथा कुछ सत्य, कुछ मषा (असत्य) - इस तरह दोनों धर्म जिसमें हों वह व्यवहार नय के कारण सत्यमृषा नामक तीसरा मनोयोग है । जिस तरह बहुत अशोक वृक्षों के साथ थोड़े अन्य वृक्ष मिश्र हों फिर भी हम लोग सोचते हैं कि ये तो अशोक वृक्ष ही हैं, यही तीसरा मिश्र मनोयोग है । (१३४३-१३४४)
सत्त्वात्कतिपयाशोक तरूणामत्र सत्यता । अन्येषामपि सद्भावात् भवेदसत्यतापि च ॥१३४५॥
इसमें कई अशोक वृक्ष का सद्भाव होने से सत्यता है और दूसरे वृक्ष भी होने से असत्यता भी है। (१३४५)
भवेदसत्यमेवेदं निश्चयापेक्षया पुनः । विकल्पितस्वरूपस्या सद्भावादिह वस्तुनः ॥१३४६॥
तथा निश्चय नय की अपेक्षा से तो यह असत्य ही है क्योंकि कल्पना स्वरूप वाले पदार्थ का वहां असद्भाव होता है। (१३४६)
विनार्थ प्रतिनिष्टां च स्वरूप मात्र चिन्तनम् । उक्ततल्लक्षणा योगान्न सत्यं न मृषा च तत् ॥१३४७॥
यथा चैत्राद्याचनीया. गौरानेयो घटस्ततः । · पर्यालोचनमित्यादि स्याद सत्यामृषाभिधम् ॥१३४८॥
अर्थ प्रतिष्ठा बिना केवल स्वरूप का ही चिन्तन करना, इसमें इसके जो लक्षण कहे हैं उनका योग न होने से न सत्य न झूठ (मृषा) नामक चौथे प्रकार का मनोयोग कहलाता है। जैसे अमुक मनुष्य के पास गाय की याचना करनी है, फिर घट लाना है इत्यादि पर्यालोचना न ही सत्य है न ही असत्य है। वह असत्यामृषा नामक मनोयोग होता है। (१३४७-१३४८) - व्यवहारपेक्षयैव पृथगेतदुदीर्यते । - निश्चयापेक्षया सत्ये ऽसत्ये वान्तर्भवेदिदम् ॥१३४६॥
इसे अलग भेद गिना है, यह तो व्यवहार नय की अपेक्षा से ही गिना है। निश्चय नय की अपेक्षा से तो ये भेद सत्य में अथवा असत्य में समा जाता है। (१३४६) .. तथाहि....... गौर्याच्येत्यादि संकल्पं दंभेन विदधीत चेत् ।
अन्तर्भवत्तदाऽसत्ये सत्ये पुनः स्वभावतः ॥१३५०॥