SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३१२) ततच........सन्तइत्यभिधीयन्ते पदार्था मुनयोऽथवा। तेषु साधु हितं सत्यमसत्यं च ततोऽन्यथा ॥१३३७॥ पदार्थाना हितं तत्र यथावस्थित चिन्तनात् । मुनीनां च हितं यस्मान्मोक्षमार्गक साधनम् ॥१३३८॥ पदार्थ वाची अथवा मुनिजन वाची शब्द सत् है । इस कारण से यह पदार्थ या मुनिजन को हितावह है, यह सत्य है। यथा स्थिति चिन्तन करने से पदार्थ हितावह और मोक्ष मार्ग का एक का एक साधन होने से मुनिराज को हितावह है। इससे विपरीत वह असत्य है। (१३३७-१३३८) स्वतो विप्रतिपतौ वा वस्तु स्थापयितुं किल । सर्वज्ञोक्तानुसारेण चिन्तनं सत्यमुच्यते ॥१३३६॥ यथास्ति जीवः सद् सद्रुपो व्याप्य स्थितस्तनुम् । भोक्ता स्वकर्मणां सत्यमित्यादि परिचिन्तनम् ॥१३४०॥ किसी वस्तु अथवा बात की स्थापना करने में स्वतः अथवा कुछ शंका उत्पन्न हो तब सर्वज्ञ के वचनानुसार चिन्तन करना चाहिए। वह सत्य मनोयोग कहलाता है। जैसे सत् असत् जीव शरीर में व्याप्त रहा है, वह स्वकर्म का भोक्ता है, इत्यादि चिन्तन करना सत्य मनोयोग है। (१३३६-१३४०) प्रश्ने विप्रतिपतौ वा स्वभावात वस्तुषु ।, विकल्प्यते जैन मतोत्तीर्ण यत्तदसत्यकम् ॥१३४१॥ नास्ति जीवो यथेकान्त नित्योऽनित्यो महानणुः । अकर्ता निर्गुणोऽसत्यमित्यादि परिचिन्तनम् ॥१३४२॥ कोई यहां प्रश्न करता है कि गुत्थी - उलझन में किसी वस्तु की जिन वचन से विपरीत कल्पना करना, उसका नाम असत्य मनोयोग है । जैसे- एकान्त से है ही नहीं, जीव नित्य है, अनित्य है, बड़ा है, छोटा है, कर्ता है तथा निर्गुणी है इत्यादि चिन्तन करना- वह असत्य मनोयोग जानना । (१३४१-१३४२) किंचित्सत्यमसत्यं वा यत्स्यादुभयधर्म युक । । स्यात्तत्सत्यमृषाभिख्यं व्यवहारनयाश्रयात् ॥१३४३॥ यथान्य वृक्षमिश्रेपु वहुष्वशोक शाखिषु ।। अशोक वनमेवेदमित्यादि परिचिन्तनम् ॥१३४४॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy