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और उत्पत्ति की अपेक्षा से औदारिक की प्रधानता है क्योंकि इसकी प्रतिपत्ति कदाचित के कारण निः संशय है। इससे औदारिक के साथ में मिश्र' इस तरह कहना युक्ति युक्त है, कार्मण के साथ में मिश्रत्व है- इस प्रकार कहना युक्तियुक्त नहीं है। (१३१५-१३१६)
यदाप्यौदारिक देह धरो वैक्रियलब्धिमान् । पंचाक्षतिथंङमय॑श्च पर्याप्तो बादरानिलः ॥१३१७॥ वैकियांगमारभते न च पूर्णीकृतं भवेत् ।
तदौदारिक मिश्रः स्याद्वैक्रियेण सह ध्रुवम् ॥१३१८॥ • तथा औदारिक शरीरधारी और वैक्रिय लब्धिमान पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य तथा बादर वायुकाय जब वैक्रिय शरीर को आरम्भ करता है तब जब तक वह शरीर पूर्ण नहीं होता तब तक औदारिक के साथ में वैक्रिय मिश्र है, इस तरह कहलाता है। (१३१७-१३१८)
एवमाहारकारम्भकाले तल्लब्धिशालिनः । सहाहारक देहेन मिश्र औदारिको भवेत् ॥१३१६॥
इसके अनुसार आहारक शरीर के प्रारम्भ के समय में आहारक लब्धि वालों का आहारक शरीर औदारिक के साथ में होता है। (१३१६)
यद्यप्यत्रोभयत्रापि मिथस्तुल्यैव मिश्रता । . तथाप्यारम्भकत्वेनौदारिकस्य प्रधानता ॥१३२०॥
तत औदारिके णैव व्यपदेशो द्वयोरपि । . न वैक्रियाहारकाभ्यां व्यपदेशो जिनैः कृतः ॥१३२१॥
इस तरह दोनों में यद्यपि मिश्रत्व तो परस्पर समान ही है फिर भी आरम्भ रूप के कारण औदारिक प्रधान है। इससे दोनों वैक्रिय और आहारक औदारिक के साथ में मिश्र हैं न कि औदारिक दोनों के साथ में मिश्र है । इस प्रकार श्री जिनेश्वर भगवान् ने कहा है। (१३२०-१३२१)
मतं सिद्धान्ति नामेतत् कर्म ग्रन्थ विदः पुनः । वैकि याहारक मिश्रे एव प्राहुरिमे कमात् ॥१३२२॥ यदारम्भे वैकि यस्य परित्यागेऽपि तस्य ते । . वदन्ति वैकि यं मिश्रमेवमाहारके ऽपि च ॥१३२३॥